________________
भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
57
प्रत्यय रही है। जैन और बौद्ध - दोनों ही परम्पराओं में जीवन को दु:खमय माना गया है। दुःख की अभिस्वीकृति भारतीय आस्था का प्रथम चरण है। बुद्ध ने इसे प्रथम आर्यसत्य कहा है। वस्तुतः, दुःख और अभाव की वेदना जीवन की वह प्यास है, जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है। दु:ख भारतीय नैतिकता का प्रवेशद्वार है। पाश्चात्य सत्तावादी विचारक किर्केगार्ड ने भी दुःख को नैतिक-जीवन का प्रथम चरण कहा है। भारतीयचिन्तन में समग्र नैतिकता इसी दुःख से विमुक्ति का प्रयास कही जा सकती है। बुद्ध और महावीर की प्रवचनधारा जनसमाज को इसी दुःखमयता से उबारने के लिए प्रवाहित हुई। दुःख भारतीय चिन्तन का यथार्थ है और दुःख-विमुक्ति आदर्श।
7. निर्वाण : जीवन का परमश्रेय- निर्वाण या मुक्ति भारतीय नैतिकता का परमश्रेय है। दुःख से विमुक्ति को ही नैतिक-जीवन का साध्य बताया गया है और दुःखों से पूर्ण विमुक्ति को ही निर्वाण या मोक्ष कहा गया है। भारतीय-आचारदर्शनों की दृष्टि में भौतिक एवं वस्तुगत सुख वास्तविक सुख नहीं हैं। सच्चा सुख वस्तुगत नहीं, अपितु आत्मगत है। उसकी उपलब्धि तृष्णा या आसक्ति के प्रहाण द्वारा सम्भव है। वीतराग, अनासक्त और वीततृष्ण होना ही उनकी दृष्टि में वास्तविक सुख है। 8. नैतिक-चिन्तन की भारतीय एवं पाश्चात्य परम्पराओं में प्रमुख अन्तर
1. पाश्चात्य-आचारदर्शन में नैतिकता का सम्बन्ध पारलौकिक जीवन की अपेक्षा वर्तमान जीवन से अधिक माना गया है, जबकि भारतीय चिन्तन में पारलौकिक-जीवन के सन्दर्भ में ही नैतिकता का विचार अधिक विकसित हुआ है। यद्यपि एकान्त रूप में न तो पाश्चात्य-परम्परा को पूर्णतया लौकिक-जीवन से और न भारतीय नैतिक-चिन्तन को पूर्णतया पारलौकिक-जीवन से ही सम्बन्धित माना जा सकता है।
2. भारतीय नैतिक-चिन्तन, नैतिक-सिद्धान्तों का विश्लेषणात्मक अध्ययन न होकर, व्यावहारिक नैतिक-जीवन से सम्बन्धित है। भारतीय नैतिक-विचारणा यह बताती है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, कौन-सा आजार उचित है और कौन-सा आचार अनचित है। इस प्रकार भारतीय नैतिकता में मुख्यतया नैतिक-सिद्धान्तों की अपेक्षा नैतिक-जीवन पर अधिक विचार किया गया है। वह उपदेशात्मक है। उसका सम्बन्धव्यावहारिक नैतिकता से अधिक है। दूसरे शब्दों में, पाश्चात्य-आचारदर्शन आचार का विज्ञान है, जबकि भारतीय आचारदर्शन जीने की कला है। यही कारण है कि भारतीय विचारकों ने आपातकालीन एवं सामान्य आचार के नियमों का गहराई से विवेचन तो किया, लेकिन नैतिकता के प्रतिमान एवं नैतिक-प्रत्ययों की सैद्धान्तिक समीक्षा भारत में उतनी गहराई से नहीं हुई, जितनी कि पश्चिम में। फिर भी यह मानना कि भारतीय नैतिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org