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________________ भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप सकलापि कला कलावतां विकलां पुण्य कलां विना खलु । सकले नयने वृथा यथा तनु भाजां हि कनीनिका विना ।। भारतीय चिन्तन में आचारशास्त्र पुण्य- कला है और पुण्य-कला के अभाव में सभी कलाएँ वैसे ही व्यर्थ हैं, जिस प्रकार कनीनिका के बिना नयन व्यर्थ हैं । जैनाचार्यों का कथन है, 'सव्वकला धम्मकला जिणेइ' (गौतमकुलक), अर्थात् धर्मकला सभी कलाओं में श्रेष्ठ है । 2. नीतिशास्त्र की दार्शनिक प्रकृति आचारशास्त्र न केवल विज्ञान या कला है, वरन् वह दर्शन का अंग भी है। यदि विज्ञान का अर्थ मानवीय अनुभव के किसी सीमित भाग का अध्ययन है, तो नीतिशास्त्र विज्ञान की अपेक्षा दर्शन ही अधिक है । इस अर्थ में उसे दर्शन का एक अंग ही मानना चाहिए, क्योंकि वह अनुभूति का पूर्ण रूप से अध्ययन करता है। मैकेंजी ने स्वयं इसे इस अर्थ में दर्शन का अंग माना है। कुछ विचारकों की दृष्टि में विज्ञान का सम्बन्ध यथार्थ से होता है। यदि विज्ञान यथार्थमूलक शास्त्रों तक सीमित है, तो हमें नीतिशास्त्र को 'दर्शन' के क्षेत्र में रखना होगा। यद्यपि नीतिशास्त्र दर्शन से इस अर्थ में भिन्न है कि दर्शन की कोई पूर्वमान्यता (postulate) नहीं होती है, जबकि नीतिशास्त्र की कुछ पूर्वमान्यताएँ होती हैं। यदि हम नैतिक मान्यताओं की समीक्षा को भी नीतिशास्त्र का अंग मान लेते हैं, तो नीतिशास्त्र वस्तुतः 'दर्शन' ही बन जाता है। फिर भी, यह स्मरण रखना चाहिए कि नीतिशास्त्र या आचारदर्शन कोरा बुद्धिविलास नहीं है; उसका सम्बन्ध व्यावहारिक जीवन से है, वह व्यावहारिक दर्शन है । जैन-नीतिशास्त्र में सम्यग्दर्शन उसके दार्शनिक पक्ष को, सम्यग्ज्ञान उसके वैज्ञानिक पक्ष को और सम्यक् चारित्र उसके कलात्मक पक्ष को अभिव्यक्त करते हैं । 53 साध्य (आदर्श) के निर्देशन एवं नैतिक मान्यताओं की समीक्षा के रूप में नीतिशास्त्र दर्शन है, जबकि आचरण के विश्लेषण के रूप में वह विज्ञान है और चरित्र - निर्माण के रूप में वह कला है। भारतीय आचारशास्त्रीय परम्परा में नैतिक मान्यताओं का तात्त्विक विवेचन, आचरण का विश्लेषण और आचरण - मार्ग का निर्देशन सभी समाविष्ट हैं और इस रूप में उसमें दर्शन, विज्ञान और कला के पक्ष उपस्थित हैं। वस्तुतः, भारतीय चिन्तन में हमें नीतिशास्त्र का एक व्यापक स्वरूप दृष्टिगत होता है, उसे सम्पूर्ण जीवन का आधार और लोक-स्थिति का व्यवस्थापक माना गया है, उसे धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का मूल और मोक्ष का प्रदाता कहा गया है सर्वोपजीवकं लोकस्थितिकृन्नीतिशास्त्रकम् । धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यतः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only - शुक्रनीति, 1/2 www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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