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मनोवृत्तियाँ (कषाय एवं लेश्याएँ)
जब उसका स्वार्थ उनसे टकराता हो । यद्यपि जैन- दृष्टि यह स्वीकार करती है कि इस स्तर में व्यक्ति अपने छोटे से हित के लिए दूसरे का बड़ा अहित करने में नहीं सकुचाता । जैनविचारणा के उपर्युक्त उदाहरण में बताया गया है कि नीललेश्या वाला व्यक्ति फल के लिए समूल वृक्ष का नाश तो नहीं करता, लेकिन उसकी शाखा को काट देने की मनोवृत्ति रखता है, अर्थात् उस वृक्ष का पूर्ण नाश नहीं, वरन् उसके एक भाग का नाश करता है। दूसरे शब्दों में, आंशिक दुःख देता है। रास के तीसरे स्तर की तुलना जैन- दृष्टि की कापोतलेश्या से की जा सकती है। जैन- दृष्टि यह स्वीकार करती है कि नील और कापोत- लेश्या के इन स्तरों में व्यक्ति सुखापेक्षी होता है, लेकिन जिन सुखों की वह गवेषणा करता है, वे वासना - सुख ही होते हैं। दूसरे, जैन- विचारणा यह भी स्वीकार करती है कि कापोत- लेश्या के स्तर तक व्यक्ति अपने स्वार्थों या सुखों की प्राप्ति के लिए किसी नैतिक- शुभाशुभता का विचार नहीं करता है। वह जो भी कुछ करता है, वह मात्र स्वार्थ- प्रेरित होता है। रास के तीसरे स्तर में भी व्यक्ति नैतिक दृष्टि से अनुचित सुख प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार, यहाँ पर भी रास एवं जैन- दृष्टिकोण विचार - साम्य रखते हैं। रास के चौथे, पाँचवें और छठे स्तरों की संयुक्त रूप से तुलना जैन- दृष्टि की तेजोलेश्या के स्तर के साथ हो सकती है। रास चौथे स्तर में प्राणी की प्रकृति इस प्रकार . बताते हैं कि व्यक्ति सुख तो पाना चाहता है, लेकिन वह उन्हीं सुखों की प्राप्ति का प्रयास करता है, जो यदि नैतिक दृष्टि से उचित नहीं, तो कम से कम अनुचित भी नहीं हों, जबकि रास के अनुसार पाँचवें स्तर पर प्राणी नैतिक दृष्टि से उचित सुखों को प्राप्त करना चाहता है तथा छठें स्तर पर वह दूसरों को सुख देने का प्रयास भी करता है। जैन- विचारणा के अनुसार भी तेजोलेश्या के स्तर पर प्राणी नैतिक दृष्टि से उचित सुखों को ही पाने की इच्छा रखता है, साथ-साथ वह दूसरे की सुख-सुविधाओं का भी ध्यान रखता है।
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रास के सातवें स्तर की तुलना जैन- दृष्टि में पद्मलेश्या से की जा सकती है, क्योंकि दोनों के अनुसार इस स्तर पर व्यक्ति दूसरों के हित का ध्यान रखता है तथा दूसरों के हित के लिए उस सब कार्यों को करने में भी तत्पर रहता है, जो नैतिक दृष्टि से शुभ हैं।
रास के अनुसार मनोभावों के आठवें सर्वोच्च स्तर पर व्यक्ति को मात्र अपने कर्तव्य बोध रहता है, वह हिताहित की भूमिकाओं से ऊपर उठ जाता है। उसी प्रकार, जैनविचारणा के अनुसार भी नैतिकता की इस उच्चतम भूमिका में जिसे शुक्ल - लेश्या कहा है, व्यक्ति को मव-भाव की उपलब्धि हो जाती है, अत: वह स्व और पर-भेद से ऊपर उठकर मात्र आत्म-स्वरूप में स्थित रहता है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि न केवल जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शन,
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