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________________ 540 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन सन्तुष्ट नहीं हए और उन्होंने उन दो गुणात्मक प्रकारों को तीन-तीन प्रकार के मात्रात्मकअन्तरों (जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट) के आधार पर छह भागों में विभाजित किया। जैन लेश्या-सिद्धान्त का ट्विध-वर्गीकरण इसी आधार पर हुआ है। यद्यपि जैनविचारकों ने मात्रात्मक-अन्तरों के आधार पर इस वर्गीकरण में तीन, नौ, इक्यासी और दो सौ तैंतालीस उपभेद भी गिनाएं हैं, लेकिन हम अपने को नैतिक-व्यक्तित्व के इस षट्विध वर्गीकरण तक ही सीमित रखेंगे। कृष्ण-लेश्या (अशुभतम मनोभाव) से युक्त व्यक्तित्वकेलक्षण- यहनैतिकव्यक्तित्व का सबसे निकृष्ट रूप है। इस अवस्था में प्राणी के विचार अत्यन्त निम्न कोटि के एवं क्रूर होते हैं। वासनात्मक-पक्ष जीवन के सम्पूर्ण कर्मक्षेत्र पर हावी रहता है। प्राणी अपनी शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक-क्रियाओं पर नियन्त्रण करने में अक्षम रहता है। वह अपनी इन्द्रियों पर अधिकार न रखे पाने के कारण बिना किसी प्रकार के शुभाशुभ विचार के उन इन्द्रिय-विषयों की पूर्ति में सदैव निमग्न बना रहता है। इस प्रकार, भोगविलास में आसक्त हो, वह उनकी पूर्ति के लिए हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और संग्रह में लगा रहता है। स्वभाव से वह निर्दय एवं नृशंस होता है और हिंसक-कर्म करने में उसे तनिक भी अरुचि नहीं होती तथा अपने स्वार्थ-साधन के निमित्त दूसरे का बड़ा से बड़ा अहित करने में वह संकोच नहीं करता। कृष्णलेश्या से युक्त प्राणी वासनाओं के अन्धप्रवाह से ही शासित होता है और इसलिए भावावेश में उसमें स्वयं के हिताहित का विचार करने की क्षमता भी नहीं होती। वह दूसरे का अहित मात्र इसलिए नहीं करता कि उससे उसका स्वयं का कोई हित होगा, वरन् वह तो अपने क्रूर स्वभाव के वशीभूत हो ऐसा किया करता है, अपने हित के अभाव में भी वह दूसरे का अहित करता रहता है। नील-लेश्या (अशुभतर मनोभाव) ये युक्त व्यक्तित्व के लक्षण- यह नैतिक -व्यक्तित्व का प्रकार पहले की अपेक्षा कुछ ठीक होता है, लेकिन होता अशुभ ही है। इस अवस्था में भी प्राणी का व्यवहार वासनात्मक-पक्ष से शासित होता है, लेकिन वह अपनी वासनाओं की पूर्ति में अपनी बुद्धि का उपयोग करने लगता है, अत: इसका व्यवहार प्रकट रूप में तो कुछ प्रभार्जित-सा रहता है, लेकिन उसके पीछे कुटिलता ही काम करती है। यह विरोधी का अहित अप्रत्यक्ष रूप से करता है। ऐसा प्राणी ईर्ष्यालु, असहिष्णु, असंयमी, अज्ञानी, कपटी, निर्लज्ज, लम्पट, द्वेष-बुद्धि से युक्त, रसलोलुप एवं प्रमादी होता है,52 फिर भी वह अपनी सुख-सुविधा का सदैव ध्यान रखता है। यह दूसरे काअहित अपने हित के निमित्त करता है, यद्यपि यह अपने अल्प हित के लिए दूसरे का बड़ा अहित भी कर देता है। जिन प्राणियों से इसका स्वार्थ सधता है, उन प्राणियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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