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________________ 518 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन एकभयानकदुष्ट अश्व पर सवार हैं, जो बड़ी तीव्र गति से भागता है, वह आप को उन्मार्ग की ओर न ले जाकर सन्मार्ग पर कैसे ले जाता है ? गौतम इस लाक्षणिक-चर्चा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह मन ही साहसिक दुष्ट अश्व है, जो चारों ओर भागता है। जातिवान अश्व की तरह श्रुतरूपी रस्सियों से बांधकर समत्व एवं धर्म-शिक्षा से उसका निग्रह करता हूँ। इस गाथा में दो शब्द महत्वपूर्ण हैं, ‘सम्मे' तथा 'धम्मसिक्खाये' । धर्म-शिक्षण द्वारा मन का निग्रह करने का अर्थ दमन नहीं, वरन् उसका उदात्तीकरण है। धर्म-शिक्षण का अर्थ है-मन को सद्प्रवृत्तियों में लगा देना, ताकि वह अनर्थ के मार्ग पर जाए ही नहीं। ऐसे ही श्रुतरूप रस्सी से बांधने का अर्थ है-विवेक एवं ज्ञान के द्वारा उसे ठीक मार्ग पर चलाना। समत्व के द्वारा किया गया निग्रह दमन नहीं है, वरन् इसे संतुलित बनाना है। मन का संतुलन दमन में तो संभव ही नहीं, क्योंकि वह तो संघर्ष की अवस्था है। जब तक वासनाओं का संघर्ष है, तब तक समत्व हो ही नहीं सकता। जैन साधना-पद्धति तो समत्व (समभाव) की साधना है। वासनाओं के दमन का मार्ग तोचित्तक्षोभ उत्पन्न करता है, अत: वह उसे स्वीकार नहीं है। जैनसाधना का आदर्श क्षायिक-साधना है, जिसमें वासना का दमन नहीं, वरन् वासनाशून्यता ही साधक का लक्ष्य है। गीता में भी हम देखते हैं कि मन के विग्रह का जो उपाय बताया गया है, वह है-वैराग्य और अभ्यास। वैराग्य मनोवृत्तियों तथा वासनाओं का दमन नहीं है, वह तो भोगों की अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अनासक्त-वृत्ति है। दूसरी ओर, अभ्यास शब्द भी दमन का समर्थक नहीं है। यदि गीताकार को दमन ही इष्ट होता, तो फिर वह अभ्यास की बात ही नहीं करता। अभ्यास की आवश्यकता दमन में नहीं होती, वासनाओं को दमित नहीं करना हो, तो फिर क्रमिक प्रयास किसलिए? अभ्यास तो वासनाओं के विलयन, परिष्कार या उदात्तीकरण के लिए है। नैतिक-विकास के लिए मात्र वासना की वृत्तियों का विलयन आवश्यक है। वासनाक्षय एवं मनोजय का सम्यक् मार्ग-चित्त-वृत्तियों का विलयन कैसे हो, इस सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं कि मन जिन-जिन विषयों में प्रवृत्त होता हो, उनसे उसे बलात् नहीं रोकना चाहिए, क्योंकि बलात्र रोकने से वह उस ओर और अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शान्त हो जाता है। जैसे मदोन्मत्त हाथी को रोका जाए, तो वह उस ओर अधिक प्रेरित होता है और उसे नरोका जाए, तो वह अपने इष्ट विषयों को प्राप्त करके शान्त हो जाता है। यही स्थिति मन की है। साधक अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हुई इन्द्रियों को न तो रोके और न उन्हें प्रवृत्त करे। वह केवल इतना ध्यान रखे कि विषयों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न न हो। वह प्रत्येक स्थिति में तटस्थ बना रहे। वह अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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