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________________ मन का स्वरूप तथा नैतिक-जीवन में उसका स्थान 517 द्वयात्मक है, जब तक शरीर है, शरीर-धर्म स्वभाव से ही अनिवार्य है, प्राकृतिक-वासना का दमन या निरोध नहीं होतागीताकार का स्पष्ट निर्देश है कि यद्यपि विषयों को ग्रहण नहीं करने वाले, अर्थात् इन्द्रियों को उनके विषयों के उपभोग करने से रोक देने वाले व्यक्तियों के द्वारा विषयों के भोग का तो निग्रह हो जाता है, तथापि उनका रस बना रहता है, अर्थात् भोग-संस्कार मूलत: नष्ट नहीं हो पाते और अनुकूल परिस्थितियों में पुन: उत्पन्न हो जाते हैं।40 रसवर्जर-सोऽप्यस्य' का पद स्पष्ट रूप से यह संकेत करता है कि गीता में नैतिक-विकास का वास्तविक मार्ग, निग्रह या निरोधका मार्ग नहीं है। इस प्रकार, गीता तो इच्छाओं के द्वन्द्वको समाप्त करना चाहती है, लेकिन दमन में द्वन्द्वसमाप्त नहीं होता, वरन् उल्टा बढ़ जाता है, अत: उसे यह दमन का मार्ग स्वीकार्य नहीं हो सकता। इस प्रकार, न केवल जैन आचार-दर्शन में दमन को अनुचित माना गया है, वरन् बौद्ध और गीता की विचारणा में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया है। जैन-दर्शन का साधना-मार्ग, वासनाओं का दमन नहीं, वासना का क्षयजैन-दृष्टि में विकास का सच्चा मार्ग वासनाओं का दमन नहीं है, उनका क्षय करना है। प्रश्न यह है कि वासनाओं के क्षय और निरोध में क्या अंतर है? । निरोध से चित्त में वासना उठती है और फिर उसे दबाया जाता है, जबकि क्षय में वासना का उठना ही शनै:-शनै: कम होकर समाप्त हो जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि में दमन में वासना (Id) और नैतिक-मन (Super ego) में संघर्ष चलता रहता है, लेकिन क्षय में यह संघर्ष नहीं होता है, वहाँ तो वासना उठती ही नहीं है। दमन या उपशम में हमें क्रोध आता है और हम उसे दबाते हैं, या उसे अभिव्यक्त होने से रोकते हैं, जबकि क्षायिकभाव में क्रोधादि के भाव ही समाप्त हो जाते हैं। जिसे साधारण भाषा में गुस्सा पी जाना कहते हैं, वही उपशम है। उसमें लोकमर्यादा आदि बाह्य-तत्त्व ही उसके निरोध का कारण बनते हैं, इसलिए यह आत्मिक-विकास नहीं है, वरन् उसका ढोंग है, एक आरोपित-आवरण है। यहाँ पर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि आगम-ग्रन्थों में मन-निरोध की बात अनेक स्थानों पर कही गई है, उसका क्या अर्थ है ? लेकिन, वहाँ पर निरोध का अर्थ दमन नहीं लगाना चाहिए, अन्यथा औपशमिक और क्षायिक-दृष्टियों का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा, अत: वहाँ पर निरोध का अर्थ क्षायिक-दृष्टि से ही करना समुचित है। प्रश्न होता है कि क्षायिक-दृष्टि से मन का शुद्धिकरण कैसे किया जाए ? उत्तराध्ययनसूत्र में मन के निग्रह के विषय में जो रूपक प्रस्तुत किया गया है, उसमें श्रमण केशी गौतम से पूछते हैं कि आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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