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मन का स्वरूप तथा नैतिक जीवन में उसका स्थान
वृत्ति को उदासीन बना ले और किंचित् भी चिन्तन या संकल्प-विकल्प न करे। जो चित्तसंकल्पों से व्याकुल होता है, उसमें स्थिरता नहीं आ सकती । 43
इस प्रकार, कमनीय रूप को देखता हुआ भी, सुन्दर और मनोज्ञ वाणी को सुनता हुआ भी, सुगंधित पदार्थों को सूंघता हुआ भी, रस का आस्वादन करता हुआ भी, कोमल पदार्थों का स्पर्श करता हुआ भी और चित्त के व्यापारों को न रोकता हुआ भी उदासीन भाव से युक्त, पूर्ण समभावी तथा आसक्ति का परित्याग कर बाह्य और आन्तरिक- चिन्ताओं एवं चेष्टाओं से रहित होकर वह एकाग्रता को प्राप्त करके अतीव उन्मनीभाव (अनासक्त-भाव ) को प्राप्त कर लेता है। 44
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उदासीनभाव में निमग्न, सब प्रकार के प्रयत्न से रहित और परमानन्द-दशा की भावना करने वाला योगी किसी भी जगह मन को नहीं जोड़ता है। इस प्रकार, आत्मा जब मन की उपेक्षा कर देता है, तो वह उपेक्षित मन इन्द्रियों का आश्रय नहीं करता, अर्थात् इन्द्रियों में प्रेरणा उत्पन्न नहीं करता। ऐसी स्थिति में इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति करना छोड़ देती हैं। जब आत्मा मन में प्रेरणा उत्पन्न नहीं करता और मन इन्द्रियों को प्रेरित नहीं करता, तब दोनों तरफ से भ्रष्ट बना हुआ मन अपने-आप विलीन हो जाता है। जब मन प्रेरक नहीं रहता, तो पहले राख से आवृत्त अग्नि की तरह शान्त हो जाता है और फिर पूर्ण रूप से उसका क्षय हो जाता है, अर्थात् चिन्ता, स्मृति आदि उसके सभी व्यापार नष्ट हो जाते हैं, तब वायु - विहीन स्थान में स्थापित दीपक जैसे निराबाध प्रकाशमान होता है, उसी प्रकार मनोवृत्तियों की चंचलतारूपी वायु का अभाव हो जाने से आत्मा में कर्म-मल से रहित शुद्ध आत्म-ज्ञान का प्रकाश होता है। 45
जैनाचार्यों ने इस प्रकार वासनाओं एवं मन के विलयन की जो अवस्था बताई, वह सहज ही साध्य नहीं है। उसके लिए मन को अनेक अवस्थाओं में से गुजरना होता है, अतः मन की इन अवस्थाओं पर भी थोड़ा विचार कर लिया जाए।
जैन- दर्शन में मन की चार अवस्थाएँ- जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों नैतिक जीवन की आधारभूमि है, अत: चित्त की विभिन्न अवस्थाओं पर व्यक्ति के नैतिक-विकास को आँका जा सकता है। आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाएँ मानी हैं- 1. विक्षिप्त मन, 2. यातायात-मन, 3. श्लिष्ट - मन और 4. सुलीन -मन 146
1. विक्षिप्त - मन- यह चंचल होता है, इधर-उधर भटकता रहता है, इसका आलम्बन प्रमुखतया बाह्य विषय होता है। यह मन की अस्थिर अवस्था है। इसमें संकल्पविकल्प या विचारों की भाग-दौड़ मची रहती है, अत: इस अवस्था में मानसिक-शान्ति
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