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________________ 50 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन है, ज्ञान का सार संयम (सदाचार) है और संयम का सार निर्वाण है। इस प्रकार, धर्म को परमश्रेय का उद्बोध माना गया है। कठोपनिषद् में भी श्रेय और प्रेय के विवेचन में बताया गया है कि जो श्रेय का चयन करता है, वही विद्वान् है। आचार्य शुभचन्द्र ने धर्म को भौतिक एवं आध्यात्मिक अभ्युदय का साधक बताया है। जैन-परम्परा में धर्म की एक परिभाषा वस्तुस्वभाव के रूप भी की गई है। जिससे स्वस्वभाव में अवस्थिति और विभावदशा का परित्याग होता है, वह धर्म है, क्योंकि स्वस्वभाव ही हमारा परमश्रेय हो सकता है और इस रूप में वही धर्म कहा जाता है। धर्म का लक्षण यह भी बताया गया है कि जो आत्मा का परिशुद्धस्वरूप है और जोआदि, मध्य और अन्त-सभी में कल्याणकारक है, वही धर्म है। वैशेषिकसूत्र में धर्म का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जिससे अभ्युदय और श्रेय की सिद्धि होती है. वह धर्म है।1 इस प्रकार, हम देखते हैं कि भारतीय-परम्परा में भी धर्म को अनेक रूपों में विवेचित किया गया है, फिर भी भारतीय-परम्परा की यह विशेषता है कि उसमें धर्म की किसी एकांगी परिभाषा पर ही बल नहीं दिया गया, वरन् धर्म अथवा नीति के विविध पक्षों को उभारते हुए उनमें एक समन्वय ही खोजने का प्रयास किया गया है। मनु ने धर्म के लक्षणों की व्याख्या करते हुए इन सभी पक्षों को समन्वित करने का प्रयास किया है। वे कहते हैं कि वेद एवं स्मृति की आज्ञाओं का परिपालन, सदाचार और आत्मवत् व्यवहार धर्म का लक्षण है। वस्तुत:, जहाँ पाश्चात्य-परम्परा में इन विविध परिभाषाओं का आग्रह देखा जाता है, वहाँ भारतीय-परम्पराओं में ऐसा आग्रह नहीं है, वरन् वे इन सभी पक्षों को समान रूप से स्वीकार करती हैं। यही कारण है कि प्रत्येक परम्परा में धर्म की विविध व्याख्याएँ उपलब्ध हो जाती हैं। जैन-परम्परा में भी धर्म की इन विविध परिभाषाओं को स्वीकार किया गया है धम्मोवत्थुसहावो, खमादिभावोयदसविहोधम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। ___ - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 478 अर्थात् वस्तुस्वभावधर्म है, क्षमादि दशविध धर्म हैं, रत्नत्रय धर्म है और जीवों की रक्षा करना धर्म है। यहधर्म या नैतिकता की व्यापक परिभाषा है। नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में इन परिभाषाओं की व्याख्या इस प्रकार होगी-स्वस्वभाव परमश्रेय के रूप में नैतिक साध्य है और रत्नत्रयरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान औरसम्यकचारित्र उस परमश्रेयरूप साध्य के साधन हैं। स्वभावदशा की उपलब्धि पारमार्थिक नैतिकता है और सम्यग्दर्शन आदि व्यावहारिक नैतिकता हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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