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________________ भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप 49 ओर जाना होगा। भारतीय-परम्परा में धर्म को अनेक रूपों में परिभाषित किया गया है, उनमें से कुछ प्रमुख दृष्टिकोण इस प्रकार हैं___1.धर्म नियमोंयाआज्ञाओं का पालन है- जैन-परम्परामें धर्म आज्ञापालन के रूप में विवेचित है। आचारांगसूत्र में महावीर ने स्पष्ट कहा है कि मेरी आज्ञाओं के पालन में धर्म है। मीमांसादर्शन में धर्म का लक्षण आदेशया आज्ञा माना गया है, उसके अनुसार वेदों की आज्ञा का पालन ही धर्म है। जैन-परम्परा में लौकिक नियमों या सामाजिक मर्यादाओं को भी धर्म कहा गया है। स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, संघधर्म आदि के सन्दर्भ में धर्म कोसामाजिक विधि-विधानों के पालन के रूप में ही देखा गया है। इस प्रकार, आचारदर्शन को नियमों अथवा रीतिरिवाजों का शास्त्र माना गया है। धर्म की ये परिभाषाएँ पाश्चात्य परम्परा में नीति की उस परिभाषा के समान हैं, जिसमें नीतिशास्त्र को रीतिरिवाजों का विज्ञान कहा गया है। 2. धर्म चारित्र का परिचायक है- पाश्चात्य-विचारक मैकेंजी ने नीतिशास्त्र को चरित्र का विज्ञान कहा है। जैन-परम्परा में धर्म की दूसरी परिभाषा चारित्र के रूप में दी गई है।स्थानांगसूत्र की टीका में आचार्य उभयदेव ने धर्म का लक्षण चरित्र माना है। प्रवचनसार में आचार कुन्दकुन्द ने भी चारित्र को ही धर्म कहा है। आचारांगनियुक्ति के अनुसार शास्त्र एवं प्रवचन का सार आचरण है। वैदिक-परम्परा में मनु ने आचार को परमधर्म कहकर धर्म का लक्षण चारित्र या आचरण बताया है। आचार को स्पष्ट करते हुए मनु ने यह भी बताया है कि आचरण का वास्तविक अर्थ रागद्वेष से रहित व्यवहार है। वे कहते हैं कि रागद्वेष से रहित सज्जन विद्वानों द्वारा जो आचरण किया जाता है और जिसे हमारी अन्तरात्मा ठीक समझती है, वही आचरण धर्म है।2. 3. धर्म कर्त्तव्य की विवेचना करता है- लोकमंगल की साधना में व्यक्ति के दायित्वों की व्याख्या करना धर्म का काम है। जैन-परम्परा में धर्म को उत्कृष्ट मंगल के रूप में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार, धर्म को विश्वकल्याणकारक बताया है। महाभारत में धर्म की परिभाषा इस रूप में की गई है कि जो प्रजा को धारण करता है, अथवा जिससे समस्त प्रजा (समाज) का धारण या संरक्षण होता है, वही धर्म है। गीता में धर्मशास्त्र को कार्याकार्य अथवा कर्त्तव्याकर्त्तव्य की व्यवस्था देने वाला बताया गया है।45 ___4. धर्म परम श्रेय की विवेचना करता है- दशवैकालिकनियुक्ति में धर्म को भाव-मंगल और सिद्धि (श्रेय) का कारण कहा है। आचारांगनियुक्ति में भी धर्म का अंतिम लक्ष्य निर्वाण बताया गया है। उसमें कहा गया है कि लोक कासारधर्म है, धर्म का सार ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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