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भारतीय आचार - दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
विवेक शक्ति युक्त प्राणी । अमनस्क - प्राणियों में यह विवेकक्षमता नहीं होती, वे न तो सुदीर्घ भूत की स्मृति रख सकते हैं और न भविष्य का एवं शुभाशुभ का विचार कर सकते हैं। उनमें मात्र कालिक-संज्ञा होती है और मात्र अंध - वासनाओं (मूलप्रवृत्ति) से उनका व्यवहार चालित होता है। अमनस्क ! क- प्राणियों में सत्तात्मक मन तो है, लेकिन उनमें शुभाशुभ का विवेक नहीं होता । विवेकाभाव के कारण ही इन्हें अमनस्क कहा जाता है। जैन दर्शन के अनुसार नैतिक-विकास का प्रारम्भ विवेकक्षमतायुक्त मन की उपलब्धि से ही होता है, जब तक विवेकक्षमतायुक्त मन प्राप्त नहीं होता तब तक शुभाशुभ का विभेद नहीं किया जा सकता और जब तक शुभाशुभ का ज्ञान प्राप्त नहीं होता, तब तक नैतिक विकास की सही दिशा का निर्धारण और नैतिक प्रगति नहीं हो पाती है।
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नैतिक प्रगति एवं नैतिक- उत्तरदायित्व और मन- इस प्रकार, जैन दर्शन में विवेक - क्षमतायुक्त मन ( Rational Mind) नैतिक प्रगति की अनिवार्य शर्त माना गया है। ब्रेडले प्रभृति पाश्चात्य विचारकों ने भी बौद्धिक क्षमता या शुभाशुभ विवेक को नैतिक प्रगति के लिए आवश्यक माना है, फिर भी जैन- विचारणा का उनसे प्रमुख मतभेद यह है कि वे नैतिक- उत्तरदायित्व और नैतिक-प्रगति- दोनों के लिए विवेकक्षमता को आवश्यक मानते हैं, जबकि जैन- विचार में नैतिक प्रगति के लिए तो विवेक आवश्यक है, लेकिन नैतिक- उत्तरदायित्व के लिए विवेकशक्ति आवश्यक नहीं है। यदि कोई प्राणी विवेकाभाव में भी कोई अनैतिक-कर्म करता है, तो जैन- दृष्टि से वह नैतिक रूप से उत्तरदायी होगा, क्योंकि 1. प्रथमत:, विवेकाभाव ही प्रमत्तता है और यही अनैतिकता का कारण है, अत: विवेकपूर्वक कार्य न करने वाला नैतिक- उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं है। 2. विवेक - शक्ति तो सभी आत्माओं में है, जिनमें वह प्रसुप्त है, उसके लिए भी वे स्वयं ही उत्तरादायी हैं। 3. अनेक प्राणी तो ऐसे हैं, जिनमें विवेक प्रकट हो चुका था, जो कभी समस् या विवेकवान् प्राणी थे, लेकिन उन्होंने उस विवेक शक्ति का सम्यक् उपयोग नहीं किया । फलस्वरूप, उनमें वह विवेकशक्ति पुनः कुण्ठित हो गई, अत: ऐसे प्राणियों को नैतिक- उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं माना जा सकता ।
सूत्रकृतांग में स्पष्ट उल्लेख है कि कई जीव ऐसे भी हैं, जिनमें जरा भी तर्कशक्ति, प्रज्ञाशक्ति या मन या वाणी की शक्ति नहीं होती। वे मूढ जीव सबके प्रति समान दोषी हैं। उसका कारण यह है कि सब योनियों के जीव एक जन्म में संज्ञा (विवेक) वाले हो, अपने किए हुए कर्मों के कारण दूसरे जन्म में असंज्ञी (विवेकशून्य) बनकर जन्म लेते हैं, अतएव विवेकवान् होना या न होना अपने ही कृत कर्मों का फल होता है। इससे
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