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मन का स्वरूप तथा नैतिक-जीवन में उसका स्थान
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नहीं होती, उसी प्रकार जड़-परमाणुओं में भी बिना किसी चेतन-आत्मा के संयोग के बंधन-मुक्ति की शक्ति नहीं होती। वस्तुस्थिति यह है कि जिस प्रकार ऐनक में देखने वाले नेत्र हैं, लेकिन विकार यारंगीनता नेत्र में नहोकर ऐनक में है, उसी प्रकार अविद्या और रागद्वेषादि विकार आत्मा से नहीं, वरन् मन से होते हैं और वे ही बन्धन के हेतु हैं, अत: मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है।
मन अविद्या कावासस्थान- जैन, बौद्ध और वैदिक आचार-दर्शन इस बात में एकमत हैं कि बन्धन का कारण अविद्या (मोह) है। अब प्रश्न यह है कि इस अविद्या का वासस्थान क्या है ? आत्मा को इसका वासस्थान मानना भ्रान्ति होगी, क्योंकि जैन और वेदान्त-दोनों परम्पराओं में आत्मा का स्वरूपभाव तो सम्यग्ज्ञानमय है, अथवा वह शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, मिथ्यात्व, मोह किंवा अविद्याआत्माश्रित हो सकते हैं, लेकिन वे आत्मगुण नहीं हैं और इसलिए उन्हें आत्मगत मानना युक्तिसंगत नहीं है। अविद्याको जड़-प्रकृति का गुण मानना भी भ्रान्ति होगी, क्योंकि यह ज्ञानाभाव ही नहीं, वरन् विपरीत ज्ञान भी है, अत: अविद्या का वासस्थानमन को ही माना जा सकता है, जो जड़-चेतन की योजक कड़ी है, अत: मन में ही अविद्या निवास करती है और मन का निवर्तन होने पर शुद्ध आत्मदशा में अविद्या की सम्भावना किसी भी स्थिति में नहीं हो सकती है। ___जैन-परम्परा के समान गीता में भी यह कहा गया है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस काम के वासस्थान हैं। इनके आश्रयभूत होकर ही यह काम ज्ञान को आच्छादित कर जीवात्मा को मोहित करता है। ज्ञान आत्मा का कार्य है, लेकिन ज्ञान में जो विकार आता है, वह आत्मा का कार्य नहोकर मन का कार्य है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जहां गीता में विकार या काम का वासस्थान मन को माना गया है, वहाँ जैन-विचार में कामादि का वासस्थान आत्मा को ही माना गया है। वे मन के कार्य अवश्य हैं, लेकिन उनका वासस्थान आत्मा ही है, जैसे रंगीनता ऐनक में है, लेकिन रंगीनता का ज्ञान तो चेतना में ही होगा।
यहाँ शंका होती है कि जैन-विचारणा में तो अनेक बद्ध प्राणियों को अमनस्क माना गया है, फिर उनमें जो अविद्या या मिथ्यात्व है, वह किसका कार्य है ? इसका उत्तर यह है कि जैन-दर्शन में प्रथम तो सभी प्राणियों में भावमन की सत्ता स्वीकार की गई है। दूसरे, श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार यदि मन को सम्पूर्ण शरीरगत मानें, तो वहाँ द्रव्यमनभी है, लेकिन वह केवल ओघ-संज्ञा है। दूसरे शब्दों में, उन्हें केवल विवेकशक्तिविहीन मन (Irrational Mind) प्राप्त है। जैन-दर्शन में जो समनस्क और अमनस्क-प्राणियों का भेद वर्णित है, वह विवेक-शक्ति (Reason) की अपेक्षा से है। समनस्क-प्राणी का अर्थ
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