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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
प्रशान्त है, पाप (वासना) से रहित है, जिसके मन की चंचलता समाप्त हो गई है, उस ब्रह्मभूत योगी को उत्तम आनन्द प्राप्त होता है। आचार्य शंकर भी विवेक-चूड़ामणि में लिखते हैं कि मन से ही बन्धन की कल्पना होती है और उसी से मोक्ष की। मन ही देहादि विषयों में राग कर बाँधता है और फिर विषवत् विषयों में विरसता उत्पन्न कर मुक्त कर देता है, इसीलिए इस जीव के बन्धन और मुक्ति के विधान में मनही कारण है, रजोगुण से मलिन हुआ मन बन्धन का हेतु होता है तथा रज-तम से रहित शुद्ध सात्विक होने पर मोक्ष का कारण होता है।
इस प्रकार, उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध है कि सभी आचार-दर्शनों में मन ही बन्धन और मुक्ति का प्रबलतम कारण है।
मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण क्यों?- प्रश्न यह है कि मन ही को क्यों बन्धन और मुक्ति का कारण माना गया? जैन-तत्त्वमीमांसा में जड़ और चेतन-दो मूल तत्त्व हैं, शेष आम्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष और निर्जरा इन दो मूल तत्त्वों के सम्बन्ध की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। शुद्ध आत्मा तो बन्धन का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें मानसिक, वाचिक और कायिक-क्रियाओं (योग) का अभाव है। दूसरी ओर, मनोभाव से रहित कायिक और वाचिक-कर्म एवं जड़कर्म-परमाणु भी बन्धनकारक नहीं होते हैं। बन्धन के कारण राग, द्वेष, मोह आदि मनोभाव आत्मिक अवश्य माने गए हैं, लेकिन इन्हें आत्मगत इसलिए कहा गया है कि बिना चेतन-सत्ता के ये उत्पन्न नहीं होते हैं। चेतन-सत्ता रागादि के उत्पादनका निमित्त-कारणअवश्य है, लेकिन बिना मन के वहरागादिभाव उत्पन्न नहीं कर सकती, इसीलिए यह कहा गया कि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है।
__ मन आत्मा के बन्धन और मुक्ति में किस प्रकार अपना भाग सम्पन्न करता है, इसे निम्न रूपक से समझा जा सकता है। मान लीजिए, कर्मावरणसे कुंठित शक्ति वाला आत्मा उस आँख के समान है, जिसकी देखने की क्षमता क्षीण हो चुकी है। जगत् एक श्वेत वस्तु है
और मन ऐनक (चश्मा) है। आत्मा को मुक्ति के लिए जगत् के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान करना है, लेकिन अपनी स्वशक्ति के कुंठित होने पर वह स्वयं तो सीधे रूप में यथार्थ ज्ञान नहीं पा सका, उसे मनरूपी ऐनक की सहायता आवश्यक होती है, लेकिन यदि ऐनक रंगीन काँच का हो, तो वह वस्तु का यथार्थ ज्ञान न देकर भ्रांत ज्ञान देता है। उसी प्रकार, यदि मन राग-द्वेषादि वृत्तियों से दूषित (रंगीन) है, तो वह यथार्थज्ञान नहीं देता और बन्धन का कारण बनता है, लेकिन यदि मनरूपी ऐनक निर्मल है, तो वह वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान देकर हमें मुक्त कर देता है। जिस प्रकार ऐनक में बिना किसी चेतन आँख के देखने की कोई शक्ति
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