________________
मन का स्वरूप तथा नैतिक-जीवन में उसका स्थान
513
विवेकाभाव की दशा में जो कुछ पाप-कर्म होते हैं, इसका उत्तरदायित्व भी उनका है।24
__ जैन-तत्त्वज्ञान में जीवों की अव्यवहार-राशिकी जो कल्पना की गई है, उस वर्ग के जीवों के नैतिक-उत्तरदायित्व की व्याख्या सूत्रकृतांग के इस आधार पर नहीं हो सकती, क्योंकि अव्यवहार-राशि के जीवों में तो विवेक कभी प्रकट ही नहीं हुआ। वे तो केवल इस आधार पर ही उत्तरदायी माने जा सकते हैं कि उनमें जो विवेकक्षमता प्रसुप्त है, वे उसको प्रकट नहीं कर रहे हैं।
एक प्रश्न यह भी है कि यदि नैतिक-प्रगति के लिए सविवेकमन' आवश्यक है, तो फिर जैन-विचारणा के अनुसार वेसभी प्राणी, जिनमें ऐसे मन का अभाव है, नैतिक-प्रगति के पथ पर कभी आगे नहीं बढ़ सकेंगे। जैन-दर्शन के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर यह होगा कि विवेक के अभाव में भी कर्म का बन्धन और कर्म-भोग तो चलता है, फिर भी जब विचारक-मन का अभाव होता है, तो प्राणी कर्मवासना से युक्त होते हुए भी वैचारिकसंकल्प से युक्त नहीं होताऔर इस कारण बन्धन में वह तीव्रता भी नहीं होती है। इस प्रकार, नवीन कर्मों का बन्ध होते हुए भी तीव्र बन्ध नहीं होता है और पुराने कर्मों का भोग चलता रहता है, अत: नदी-पाषाण-न्याय के अनुसार संयोग से कभी-न-कभी वह अवसर उपलब्ध हो जाता है, जब प्राणी विवेक को प्राप्त कर लेता है और नैतिक-विकास की ओर अग्रसर हो सकता है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि मन आचार-दर्शन का केन्द्र-बिन्दु है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन मन को नैतिक-जीवन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार, मन ही नैतिक-उत्थान और नैतिक-पतन का महत्वपूर्ण साधक है। यही कारण है कि समालोच्य सभी आचार-दर्शन मन के संयम पर जोर देते हैं।
___ मनोविग्रह- भारतीय आचार-दर्शन में इच्छा-निरोध या वासनाओं के दमन का स्वर काफी मुखरित हुआ है। आचार-दर्शन के अधिकांश विधि-निषेध इच्छाओं के दमन से सम्बन्धित हैं, क्योंकि इच्छाएँ तृप्ति चाहती हैं और तृप्ति बाह्य-साधनों पर निर्भर है। यदि बाह्य-परिस्थिति प्रतिकूल हो, तो अतृप्त इच्छा मन में ही क्षोभ उत्पन्न करती है और इस प्रकार चित्त-शान्ति या आध्यात्मिक-समत्व का भंग हो जाता है, अत: यह माना गया कि समत्व के नैतिक-आदर्श की उपलब्धि के लिए इच्छाओं का दमन कर दिया जाए। मन ही इच्छाओं एवं संकल्पों का उत्पादक है, अत: इच्छा-निरोध का अर्थ मनोनिग्रह भी मान लिया गया। पंतजलि ने तो यहाँ तक कह दिया कि चित्त-वृत्ति का निरोध ही योग है। यह माना जाने लगा कि मन स्वयं हीसमग्र क्लेशों का धाम है, उसमें जो भी वृत्तियाँ उठती हैं, वे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org