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जैन - आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
रूप को ग्रहण करने वाली चक्षु - इन्द्रिय है और रूप चक्षु - इन्द्रिय का विषय हैं। प्रिय रूप राग का और अप्रिय रूप द्वेष का कारण है। 50 जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर पतंग मृत्यु पाता है, उसी प्रकार रूप में अत्यंत आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु पाते हैं। st रूप की आशा के वश पड़ा हुआ अज्ञानी जीव, त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है तथा पीड़ित करता है। 2 रूप में मूच्छित जीव उन पदार्थों के उत्पादन, रक्षण एवं व्यय में और वियोग की चिन्ता में लगा रहता है। उसे सुख कहां है ? वह संभोग काल में भी अतृप्त रहता है।” रूप में आसक्त मनुष्य को थोड़ा भी सुख नहीं होता। जिस वस्तु की प्राप्ति में उसने दुःख उठाया, उसके उपभोग के समय भी वह दु:ख पाता है। 54
श्रोत्रेन्द्रिय शब्द को ग्रहण करने वाली और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है। प्रिय शब्द राग का और अप्रिय शब्द द्वेष का कारण है । SS जिस प्रकार राग में वृद्ध मृग मारा जाता है, उसी प्रकार शब्दों के विषय में मूच्छित जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है । " मनोज्ञ शब्द की लोलुपता के वशवर्ती भारीकर्मी जीव अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है और पीड़ा देता है। ” शब्द में मूच्छित जीव मनोहर शब्द वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं वियोग की चिंता में लगा रहता है। वह संभोग- काल के समय में भी अतृप्त ही रहता है, फिर उसे सुख कहां है" ? तृष्णा के वश में पड़ा हुआ वह जीव चोरी करता है तथा झूठ और कपट की वृद्धि करता हुआ अतृप्त रहता है और दुःख से नहीं छूट पाता । 59
गन्ध को नासिका ग्रहण करती है और गन्ध नासिका का ग्राह्य-विषय है। सुगन्ध का कारण है और दुर्गन्ध द्वेष का कारण है। 50 जिस प्रकार सुगन्ध में मूर्च्छित सर्प बिल से बाहर निकलकर मारा जाता है, उसी प्रकार गन्ध में अत्यन्त आसक्त जीव अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होता है ।" सुगन्ध के वशीभूत होकर बालजीव अनेक प्रकार से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उन्हें दुःख देता है । 12 सुगन्ध में आसक्त जीव सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण, व्यय तथा वियोग की चिन्ता में लगा रहता है, वह संभोग -काल में भी अतृप्त रहता है, फिर उसे सुख कहां है ?" गंध में आसक्त जीव को कुछ भी सुख नहीं होता, वह सुगन्ध के उपभोग के समय भी दुःख एवं क्लेश ही पाता है। 4
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रसको रसनेन्द्रिय ग्रहण करती है और रस रसनेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है। मनपसन्द रस राग का कारण और मन के प्रतिकूल रस द्वेष का कारण है।'' जिस प्रकार मांस खाने के लालच में मत्स्य काँटे में फँसकर मारा जाता है, उसी प्रकार रसों में अत्यन्त गृद्ध जीव
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