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________________ भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन कारण बन जाता है, अतः समालोच्य आचार- दर्शनों ने संयम पर जोर दिया है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जब इन्द्रियों का अनुकूल या सुखद विषयों से सम्पर्क होता है, तब उन विषयों में आसक्ति तथा तृष्णा के भाव जाग्रत होते हैं और जब इन्द्रियों का प्रतिकूल या दुःखद विषयों से संयोग होता है, अथवा अनुकूल विषयों की प्राप्ति में कोई बाधा आती है, तो घृणा या विद्वेष के भाव जाग्रत होते हैं। इस प्रकार, सुख-दुःख का प्रेरक नियम एक-दूसरे के रूप में बदल जाता है। सुख का स्थान राग- आसक्ति या तृष्णा का भाव ले ता है और दुःख का स्थान घृणा या द्वेष का भाव ले लेता है। राग-द्वेष की ये वृत्तियाँ ही व्यक्ति के नैतिक-अध: पतन एवं जन्म-मरण की परम्परा का कारण हैं। सभी समालोच्य आचार - दर्शन इसे स्वीकार करते हैं। जैन-विचारक कहते हैं कि राग और द्वेष- दोनों ही कर्म-परम्परा के बीज हैं और कर्म-परम्परा अविद्या (मोह) और जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुःख है । " गीता में कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! इच्छा (राग) और द्वेष के द्वन्द्व में मोह से आवृत्त होकर प्राणी इस संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। रजोगुण से उद्भूत होने वाले काम (राग) और क्रोध ही प्राणी को दुराचरंण में प्रवृत्त करते हैं। 17 भगवान् बुद्ध कहते हैं, जिसने राग-द्वेष और मोह को छोड़ दिया है, वह फिर माता के गर्भ में नहीं पड़ता ।48 496 इस समग्र विवेचन को संक्षेप में इस प्रकार रख सकते हैं कि विविध इन्द्रियों एवं मन द्वारा उनके विषयों के ग्रहण की चाह में वासना के प्रत्यय का निर्माण होता है । वासना का प्रत्यय पुनः अपने विधेयात्मक एवं निषेधात्मक पक्षों के रूप में सुख और दुःख की भावनाओं जन्म देता है। यही सुख और दुःख की भावनाएँ राग और द्वेष की वृत्तियों का कारण बन हैं। यही द्वेष की वृत्तियाँ क्रोध, मान, माया, लोभादि विविध प्रकार के अनैतिक व्यापार का कारण होती हैं। इन सबके मूल में तो ऐन्द्रिक एवं मनोजन्य - व्यापार ही हैं और इसलिए साधारण रूप से यह माना गया कि नैतिक आचरण एवं नैतिक-विकास के लिए इन्द्रिय और मन की वृत्तियों का निरोध कर दिया जाए । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि इन्द्रियों पर काबू किए बिना राग-द्वेष एवं कषायों पर विजय पाना सम्भव नहीं होता", अतः इस सम्बन्ध में विचार करना उपयोगी होगा कि क्या इन्द्रिय और मन के व्यापारों का निरोध सम्भव है और यदि सम्भव है, तो उसका वास्तविक रूप क्या है ? जैन-दर्शन में इन्द्रिय-निरोध - इन्द्रियों के विषय अपनी पूर्ति के प्रयास में किस प्रकार नैतिक पतन की ओर ले जाते हैं, इसका सजीव चित्रण उत्तराध्ययन के 32 वें अध्याय में मिलता है। यहां उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं। -1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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