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________________ 468 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन चिन्तकों ने जो साधना-मार्ग बताए हैं, उनमें श्रद्धा और आचरण-दोनों का ही समान मूल्य है। श्रद्धा, जो धर्म का केन्द्रीय-तत्त्व है और आचरण, जो नैतिकता का केन्द्रीय-तत्त्व है, दोनों मिलकर ही जीवन के विकास को सही दिशा में गति देते हैं। यद्यपि हमें यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि श्रद्धा का अर्थअन्धश्रद्धा नहीं है। धर्म के रूप में जिस निष्ठा और श्रद्धाको आवश्यक माना गया है, वह वस्तुत: उच्च एवं आध्यात्मिक-मूल्यों के प्रति निष्ठा ही है, जो पूरी तरह विवेक याप्रज्ञा से समन्वित है। श्रद्धाऔर कर्म या धर्म और नैतिकता के मध्य स्थित ज्ञान, विवेकया प्रज्ञा का तत्त्व न केवल दोनों को जोड़ता है, वरन् उन्हें गलत दिशाओं में जाने से बचाता भी है। यही कारण है कि भारतीय-दर्शन की कुछ प्रबुद्ध विचारणाओं में धर्म केवल अन्धविश्वास के रूप में विकसित नहीं हुआ है। धर्म के लिए श्रद्धा आवश्यक है, लेकिन वह श्रद्धा, विवेक और कर्म से समन्वित ही होना चाहिए और सम्भवत: जैन और बौद्ध-विचारणाओं ने इस दृष्टिकोण को विकसित ही किया है। श्रद्धा या निष्ठा मानव-जीवन या मानवीय-चेतना का एक भावात्मक पक्ष है और उसके समुचित विकास एवं पूर्णता के लिए धर्म आवश्यक है। न कोई ऐसा युग रहा और न आगे रहेगा, जिसमें धर्म का स्थान न हो। जब तक मानव-जीवन में भावात्मक-पक्ष उपस्थित है, तब तक धर्म एक अनिवार्य तत्त्व है। यह सम्भव है कि तथाकथित धर्मों के नाम परमानव की इस भावात्मक-चेतना को उभाड़ा गया हो और उसका गलत दिशा में निर्देश भी हुआ हो। यही कारण है कि वर्तमान युग में धर्म के प्रति तीव्र विरोध परिलक्षित होता है, लेकिन इस विरोध के परिणामस्वरूप भी कोई नया दिशा-निर्देश नहीं हो पाया है। पुराने धर्मों के स्थान पर आज ये राजनीतिक-धर्म खड़े हो रहे हैं। राष्ट्रवाद, साम्यवाद, पूँजीवाद आदि के नाम पर खड़े होने वाले ये नए धर्म मानवीय-चेतना के उसभावात्मक-पक्ष का शोषण और गलत दिशा-निर्देश आज भी कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वर्तमान युग की यह स्थिति उससे भी अधिक दारुण और मानव-जाति के लिए विनाशकारक है। आवश्यकता यह है कि मानव की निष्ठा किन्हीं ऐसे उच्च आध्यात्मिक-मूल्यों पर केन्द्रित की जाए, जिससे वह अपनी क्षुद्रताओं, संकुचित विचार-दृष्टियों और स्वार्थमय जीवन से ऊपर उठकर मानवजाति के कल्याण की साधक बन सके। धर्म और ईश्वर-धर्म का प्रत्यय ईश्वर कीधारणा से सम्बन्धित है।मानवीय-श्रद्धा का कोई केन्द्र होना आवश्यक है और श्रद्धा के केन्द्र के रूप में ईश्वर का विचार सामने आया है। यद्यपि सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में ईश्वर का प्रत्यय स्वीकृत रहा है, तथापि उसके स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों में अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। यहाँ उन सभी की चर्चा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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