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नैतिकता, धर्म और ईश्वर
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भी वह यह स्वीकार करता है कि व्यक्ति का अंतिम साध्य शुभाशुभ की सीमारेखा से ऊपर उठने में है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन भी स्वीकार करते हैं कि मनुष्य का परमसाध्य शुभाशुभसे ऊपर उठने में है। इस प्रकार, ब्रेडले के उपर्युक्त चिन्तनसे भारतीय विचार अधिक दूर नहीं है, फिर भी पाश्चात्य-परम्परा में ऐसे अनेक चिन्तक हैं, जो यह मानते हैं कि बिना धार्मिक हुए भी कोई व्यक्ति सदाचारी हो सकता है। सदाचारीजीवन के लिए धार्मिकता अनिवार्य नहीं है। साम्यवादी देशों में इसी धर्म-विहीन नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। यदि धर्म का अर्थ किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था या पूजा-उपचार के कुछ क्रियाकांडों तक सीमित है, तब तो यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति अधार्मिक होकर भी नैतिक हो सकता है, लेकिन धर्म का सम्बन्ध सिद्धान्त या आदर्श के प्रति निष्ठा या श्रद्धा से है, तो उसके अभाव में कोई भी व्यक्ति सच्चा नैतिक नहीं हो सकता। श्रद्धा या निष्ठा के अभाव में नैतिक-जीवन उस भवन के समान होगा, जिसकी नींव नहीं है। जिस प्रकार बिना नींव का भवन कब धाराशायी हो जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार श्रद्धा या निष्ठा-विहीन नैतिक-जीवन में पतन की सम्भावनाएँ सदैव बनी रहती हैं। धर्म, जिसका पर्याय श्रद्धा या निष्ठा है, नैतिक-जीवन के लिए आवश्यक है। धर्म नैतिकता की आत्मा है और नैतिकताधर्म काशरीर है। एक-दूसरे के अभाव में दोनों नहीं टिकते।
आचरण के लिए निष्ठा और निष्ठा के लिए आचरण आवश्यक है। जो लोग सदाचरण और नैतिक-जीवन के लिए धर्म को अनावश्यक मानते हैं, उनकी दृष्टि में धर्म पूजा-उपासना के विधिविधानों से अधिक नहीं है, लेकिन धर्म के केन्द्रीय-तत्त्व निष्ठा और सहानुभूति तो उन्हें भी मान्य हैं। स्वयं साम्यवादी-विचारक, जो धर्म को अफीम की गोली कहने का साहस करते हैं, वे भी साम्यवाद के सिद्धान्तों के प्रति निष्ठावान् होना आवश्यक मानते हैं। निष्ठा चाहे किसी सिद्धान्त या आदर्श के प्रति हो, चाहे राष्ट्र या राष्ट्रनेता के प्रति हो, चाहे मानवता के प्रति हो, चाहे अति-मानवीय सत्ता के प्रति हो, नैतिक-जीवन के लिए आवश्यक है। निष्ठा के होने पर ही सदाचरण सम्भव है। भूमि में पानी है-यह विश्वास ही किसी को कुआंखोदने के लिए प्रयत्नशील बनाता है। उच्चमानवीय-मूल्यों याआध्यात्मिकमूल्यों पर निष्ठा रखे बिना नैतिक-जीवन सम्भव ही नहीं हो सकता। निष्ठा या श्रद्धा ही नैतिक-जीवन का प्रेरक-सूत्र है और वही नैतिकता के लिए ठोस और स्थायी आधार प्रस्तुत करती है। नैतिक-जीवन का प्रारम्भ और अन्त-दोनों ही धर्म में होते हैं।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि धर्म और नैतिक-जीवन सहगामी रहे हैं। भारतीय
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