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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
व्यक्ति के पास ऐसा कौन-सा प्रतिमान या निकष है, जिसके आधार पर वह किसी कर्म को शुभ अथवा अशुभ कहे ? वह दृष्टिकोण क्या है, जिसके आधार पर कर्मों की शुभता और अशुभता का निश्चय किया जाता है ? इन प्रश्नों ने सदैवमानवीय चिन्तन को प्रभावित किया है और विचारकों ने इन प्रश्नों के समाधान के विभिन्न प्रयास किए हैं। किसी ने कर्ता के संकल्प या कर्मप्रेरक को कर्मों की शुभाशुभता का आधार माना। इसी प्रकार, 'कर्मों की शुभाशुभता की कसौटी क्या है ?' इस प्रश्न के विविध उत्तरों के आधार पर नैतिकप्रतिमानों के अनेक सिद्धान्त अस्तित्व में आए। एक ओर, किसी ने 'नियम' को, तो किसी ने 'सुख' को नैतिक प्रमापक कहा; दूसरी ओर, कुछ विचारकों ने आत्मपूर्णता' को ही नैतिक प्रमापक माना, तो कुछ ने 'मूल्य' के नैतिक-प्रतिमान की स्थापना की; इतना ही नहीं, इन विभिन्न धारणाओं के अन्तर्गत भी अनेक सिद्धान्त अस्तित्व में आए, अत: वर्तमान स्थिति में इन विभिन्न सिद्धान्तों के गुण-दोषों की समीक्षा किए बिना ही नैतिक-निर्णय दे पाना सम्भव नहीं है। नैतिकता के सैद्धान्तिक अध्ययन के अभाव में व्यक्ति अपने नैतिक विवेक का यथार्थ उपयोग नहीं कर सकता। 3. सैद्धान्तिक अध्ययन का व्यावहारिक जीवन से सम्बन्ध
नैतिकता के सैद्धान्तिक अध्ययन का नैतिक-आचरण से सीधा सम्बन्ध नहीं है। व्यक्ति नैतिक सिद्धान्तों के बिना भी नैतिक-आचरण कर सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि एक सदाचारी व्यक्ति नीतिशास्त्र का गहन अध्ययन करे। एक ओर, नीतिशास्त्र के सैद्धान्तिक अध्ययन के बिना भी एक व्यक्ति सदाचारी हो सकता है, दूसरी ओर, नीतिशास्त्र का एक मर्मज्ञ विद्वान् भी दुराचारी हो सकता है, अत: यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि नैतिक सिद्धान्तों के अध्ययन का व्यावहारिक दृष्टि से क्या लाभ है ? क्या नैतिक सिद्धान्तों का अध्ययन हमारे व्यावहारिक जीवन को प्रभावित कर सकता है ? एक ओर, महाभारत स्पष्ट कहता है कि धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्ति नहीं होती। जैनागम सूत्रकृतांग में भी कहा गया है कि जिस प्रकार अन्धा व्यक्ति प्रकाश होते हुए भी नेत्रहीन होने के कारण कुछ भी नहीं देख पाता,उसी प्रकार कुछ प्रमत्त मनुष्य शास्त्र के समक्ष रहते हुए भी सम्यक् आचरण नहीं कर पाते, किन्तु दूसरी
ओर, जैन-दर्शन और गीता यह भी स्वीकार करते हैं कि नैतिकता का सैद्धान्तिक अध्ययन व्यावहारिक जीवन के लिए आवश्यक है। गीता के अन्तिम अध्याय में गीता के पठन और श्रवण का महत्व इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर बताया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि ज्ञानसम्पन्न होकर आत्मा विनय, तप और सच्चरित्रता को प्राप्त करता है। इस प्रश्न
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