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________________ 460 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन की अवस्था है। इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होने वाले द्वन्द्वों का उसमें पूर्ण अभाव होने से वह परम शान्ति है। तृष्णा और वेदनाजन्य दुःखों का पूर्ण अभाव होने से वह परम आनन्द है। जन्ममरण के चक्र से मुक्ति के रूप में वह अमृतपद है। मोह या अज्ञान की पूर्ण निवृत्ति के रूप में वह निरपेक्ष ज्ञान की अवस्था है। चेतना की ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मकशक्तियों की पूर्ण अभिव्यक्ति एवं उनके पूर्ण सामञ्जस्य के रूप में वह आत्मपूर्णता एवं आत्मसाक्षात्कार है। इस प्रकार, पाश्चात्य आचार-दर्शनों में नैतिक-साध्य के रूप में जिन विभिन्न तथ्यों की चर्चा की गई है, वे सभी समवेत रूप में मोक्ष की भारतीय-धारणा में उपस्थित हैं। 12. साध्य, साधक और साधना-पथ का पारस्परिक-सम्बन्ध साध्य और साधक जैन आचार-दर्शन में साध्य (मोक्ष) और साधक में अभेद ही माना गया है। समयसारटीका में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि परद्रव्य का परिहार और शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है। आचार्य हेमचन्द्र साध्य और साधक में अभेद बताते हुए लिखते हैं कि कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करने वाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मोक्ष कहा जाता है। मुनि न्यायविजयजी लिखते हैं कि आत्मा ही संसार है और आत्माही मोक्ष है। जहाँ तक आत्मा कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, संसार है और उनको ही जब अपने वशीभूत कर लेता है, मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार, नैतिक-साध्य और साधक-दोनों ही आत्मा हैं। दोनों में मौलिक अन्तर यही है कि आत्मा जब तक विषयों और कषायों के वशीभूत रहता है, तब तक साधक होता है और जब उन पर विजय पा लेता है, तब वही साधक बन जाता है। आत्मा की वासनाओं के मल से युक्त अवस्था ही उसका बन्धन कही जाती है और विशुद्ध आत्म-तत्त्व की अवस्था ही मुक्ति कही जाती है। जैन आचार-दर्शन में साध्य और साधक-दोनों में अन्तर इस बात को लेकर है कि आत्मा की अपूर्ण अवस्थाही साधक-अवस्था है और आत्मा की पूर्ण अवस्थाही साध्य है। जैन नैतिक-साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य-तत्त्व नहीं, वह तो साधक का अपना ही स्वरूप है, उसकी ही अपनी पूर्णता की अवस्था है। साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं, वरन् उसके अन्दर ही है। साधक को उसे पाना भी नहीं है, क्योंकि पाया तो वह जाता है, जो व्यक्ति के भीतर नहीं हो, अथवा अपने से बाह्य हो। नैतिक-साध्य बाह्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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