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________________ नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष) 459 की प्राप्ति। गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष, निर्वाणपद, अव्यय-पद, परमपद, परमगति और परमधाम कहता है। जैन एवं बौद्ध-विचारणा के समान गीताकार की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म-मरण की प्रक्रिया से युक्त है, जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म-मरण का अभाव है। गीता का साधक यही प्रेरणा लेकर आगे बढ़ता है (जरामरणमोक्षाय 7.29) और कहता है जिसको प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में नहीं लौटना होता है, उस परमपद की गवेषणा करना चाहिए।'68 गीता का ईश्वर भी साधक को आश्वस्त करते हुए यही कहता है कि जिसे प्राप्त पर लेने पर पुन: संसार में आना नहीं होता, वही मेरा परमधाम (स्वस्थान) है। परमसिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त होकर, दु:खों के घर, इस अस्थिर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते हैं। ब्रह्मलोकपर्यन्त समग्र जगत् पुनरावृत्ति-युक्त है, लेकिन जो भी मुझे प्राप्त कर लेता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।'69 मोक्ष के अनावृत्तिरूप लक्षण को बताने के साथ हीमोक्ष के स्वरूप का निर्वचन करते हुए गीता कहती है, इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन अव्यक्त तत्त्व है, जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है, अर्थात् चेतना-पर्यायों में जो अव्यक्त है, उनसे भी परे उनका आधारभूत आत्मतत्त्व है। चेतना की अवस्थाएँ नश्वर हैं, लेकिन उनसे परे रहने वाला यह आत्मतत्त्व सनातन है, जो प्राणियों में चेतना (ज्ञानपर्यायों) के रूप में प्रकट होते हुए भी उन प्राणियों तथा उनकी चेतना-पर्यायों (चेतन-अवस्थाओं) के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा को अक्षर और अव्यक्त कहा गया है और उसे ही परम-गति भी कहते हैं, वही परमधाम भी है, वही मेरा परमात्मस्वरूप याआत्मा का निज-स्थान है, जिसे प्राप्त कर लेने पर पुन: निवर्तन नहीं होता।'70 उसे अक्षर, ब्रह्म, परमतत्त्व, स्वभाव (आत्मा की स्वभावदशा) और अध्यात्म भी कहा जाता है (8/3)।' गीता की दृष्टि में मोक्ष निर्वाण है, परमशान्ति का अधिस्थान है।" जैन-दर्शन की भाँति गीता भी यह स्वीकार करती है कि मोक्षसुखावस्था है। गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत होकर अत्यन्त सुख (अनन्तसौख्य) का अनुभव करता है। यद्यपि गीता एवं जैन-दर्शन में मुक्तात्मा में जिस सुख की कल्पना की गई है, वह न ऐन्द्रिय-सुख है, न वह मात्र दु:खाभावरूप-सुख है, वरन् वह अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य अनश्वर-सुख है।'73 निष्कर्ष- इस प्रकार, हम देखते हैं कि सामान्यतया भारतीय-दर्शन में मोक्ष या निर्वाण का प्रत्यय नैतिक-जीवन का साध्य रहा है और नैतिक-साध्य सम्बन्धी अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालता है। राग और द्वेष के प्रहाण के रूप में वह पूर्ण चैत्तसिक-समत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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