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भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
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तृष्णा का अभाव भी सद्भूत है, उसे सुख कहा जाता है। दूसरे, उसे अभाव इसलिए भी कहा जाता है कि साधक में शाश्वतवाद की मिथ्यादृष्टि भी उत्पन्न न हो । राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं (अत्त) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता, इसी से उसे अभाव कहा जाता है। निर्वाण राग का, अहं का पूर्ण विगलन है, लेकिन अहं या ममत्व की समाप्ति को अभाव नहीं कह सकते । निर्वाण की अभावात्मक - कल्पना 'अनत्त' का गलत अर्थ समझने से उत्पन्न हुई है। बौद्ध दर्शन में अनात्म (अनत्त) शब्द आत्म (तत्त्व) का अभाव नहीं बताता, वरन् यह बताता है कि जगत् में अपना या मेरा कोई नहीं है। अनात्म का उपदेश आसक्ति के प्रहाण के लिए, तृष्णा के क्षय के लिए है ।" निर्वाण तत्त्व का अभाव नहीं, वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। अनत्त (अनात्म) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे मेरा या अपना कहा जा सके। सभी अनात्म हैं, इस शिक्षा का सच्चा अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है, क्योंकि जहाँ मेरापन (आत्मभाव) आता है, वहाँ राग एवं तृष्णा का उदय होता है, 'स्व' की 'पर' में अवस्थिति होती है, आत्मदृष्टि (ममत्व) उत्पन्न होती है, लेकिन यही आत्म- - दृष्टि, 'स्व' का 'पर' में अवस्थित होना, रागभाव एवं तृष्णा
वृत्त - धन है । जो तृष्णा है, वही राग है और जो राग है, वही अपनापन है। निर्वाण में तृष्णा का क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने से अपनापन (अत्ता) भी नहीं होता। बौद्ध - निर्वाण की अभावात्मकता का सही अर्थ इस अपनेपन का अभाव है, तत्त्व का अभाव नहीं है। वस्तुतः, तत्त्व - लक्षण की दृष्टि से निर्वाण भावात्मक अवस्था है। वासनात्मकपर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता है, अत: प्रो. कीथ और नलिनाक्ष दत्त की यह मान्यता कि बौद्ध-निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध-विचारणा की मूल विचार- दृष्टि के निकट ही है । यद्यपि बौद्ध-निर्वाण भावात्मक है, तथापि भावात्मक भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि भाव किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के लिए प्रतिपक्ष अनिवार्य है, जबकि निर्वाण तो पक्षातिक्रांत है। निषेधमूलक कथन की यह विशेषता होती है कि उसके लिए प्रतिपक्ष आवश्यक नहीं, अतः अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में निषेधात्मक भाषा का प्रयोग ही अधिक समीचीन है। इस निषेधात्मक - विवेचनाशैली ने निर्वाण की अभावात्मक - कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है। वस्तुतः तो, निर्वाण अनिर्वचनीय है ।
11. गीता में मोक्ष का स्वरूप
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गीता में भी नैतिक-साधना का लक्ष्य है - परमतत्त्व, ब्रह्म, अक्षरपुरुष अथवा पुरुषोत्तम
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