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नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष)
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निर्वाण को अभावात्मक इसीलिए कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में भावात्मक-भाषा की अपेक्षा अभावात्मक-भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होती है।
निर्वाणकीअनिर्वचनीयता
इस सम्बन्ध में निम्न बुद्ध-वचन उपलब्ध हैं- 'भिक्षुओं ! न तो मैं उसे अगति और नगति कहता हूँ, न स्थिति और नच्युति कहता हूँ, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ। वह न तो कहीं ठहरा है, न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है, यही दुःखों का अन्त है। भिक्षुओं! अनन्त का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान नहीं, जिस ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है, उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं हैं।'6'उदान में निर्वाण के सम्बन्ध में कहा गया है कि 'जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु वहाँ नहीं ठहरती, वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते हैं। वहाँ चन्द्रमा की प्रभा भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है। जब क्षीणाम्रव भिक्षु अपने-आपको जान लेता है, तबरूप-अरूप तथा सुख-दुःख से छूट जाता है। उदान का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला देता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं जहाँ न पवन बहता है, न चन्द्र, सूर्य प्रकाशित होते हैं, जहाँ जाने परपुन: इस संसार में आया नहीं जाता, वहीं मेरा (आत्मा का) परमधाम (स्वस्थान) है।'66
बौद्ध-निर्वाण की यह विशद विवेचना हमें इस निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारम्भिक बौद्ध-दर्शन का निर्वाण अभावात्मक-तथ्य नहीं था। इसके लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं -
1. निर्वाण यदि अभावमात्र होता, तो वह तृतीय आर्य-सत्य कैसे होता ? क्योंकि अभाव आर्यचित्त का आलम्बन नहीं हो सकता।
2. यदि तृतीय आर्य-सत्य का विषय द्रव्य-सत्य नहीं है, तो उसके उपदेश का क्या मूल्य होगा?
3. यदि निर्वाण मात्र अभाव है, तो उच्छेददृष्टि सम्यग्दृष्टि होगी, लेकिन बुद्ध ने तो सदैव ही उच्छेददृष्टि को मिथ्यादृष्टि कहा है।
4. महायान की धर्मकाय की अवधारणा और उसकी निर्वाण से एकरूपता तथा विज्ञानवाद के आलयविज्ञान की अवधारणा निर्वाण की अभावात्मक-व्याख्या के विपरीत पड़ती हैं, अत: निर्वाण का तात्त्विक-स्वरूप अभाव सिद्ध नही हाता। उस अभाव या निरोध कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा का अभाव है, लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव अभाव-मात्र है, फिर भी सद्भूत है, उसे आरोग्य कहते हैं, उसी प्रकार
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