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________________ 456 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन में लिखते हैं- 'निर्वाण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। भव और जरामरण के अभाव से यह नित्य है, अशिथिल-पराक्रम-सिद्ध, विशेषज्ञान से प्राप्त किए जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण विद्यमान है।'57 निर्वाण अभावात्मक-तथ्य निर्वाण की अभावात्मकता के सम्बन्ध में उदान में निम्न बुद्ध-वचन हैं- 'लोहे के घन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती हैं, वे तुरन्त ही बुझ जाती हैं, कहाँ गईं, कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार, काम-बन्धन से मुक्त हो निर्वाण प्राप्त पुरुष की गति का कोई भी पता नहीं लगा सकता।'58 शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई। सारी वेदनाओं को भी, बिल्कुल जला दिया। संस्कार शान्त हो गए, विज्ञान अस्त हो गया।।59 लेकिन, दीप-शिखा और अग्नि के बुझ जाने, अथवा संज्ञा के विरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता। आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमार्ग में कहते हैं कि निर्वाण का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है। प्रो. कीथ एवं प्रो. नलिनाक्ष दत्त अग्गिवच्छगोत्तसुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने का अर्थ अभावात्मकता नहीं है, वरन् अस्तित्व की रहस्यमय एवं अवर्णनीय अवस्था है। प्रो. कीथ के अनुसार निर्वाण अभाव नहीं, वरन् चेतना का अपने मूल (वास्तविक शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रो. नलिनाक्ष दत्त के शब्दों में निर्वाण की अग्नि-शिखा के बुझ जाने से की जाने वाली तुलना समुचित है, क्योंकि भारतीय-चिन्तन में आग के बुझ जाने से तात्पर्य इसके अनस्तित्व से न होकर उसका स्वाभाविक, शुद्ध, अदृश्य, अव्यक्त अवस्था में चला जाना है, जिसमें कि वह अपने दृश्य-प्रकटन के पूर्व थी। बौद्ध-दार्शनिक संघ-भद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव है।" मिलिन्दप्रश्न के अनुसार भी निर्वाणधातु अस्ति-धर्म (अस्थिधम्म), एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है। उसका लक्षण स्वरूपत: नहीं बताया जा सकता, किन्तु गुणतः दृष्टान्त के रूप में कहा जा सकता है कि जैसे जल प्यास शान्त करता है, वैसे ही निर्वाण तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी उसकी एकान्तअभावात्मकता सिद्ध नहीं होती। आर्य (साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता, फिर भी वह उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ (प्राप्नोति) करता है। वस्तुत:, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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