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नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष)
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है, चतुष्कोटि विनिर्मुक्त है और वही परमतत्त्व है। वह न भाव है, न अभाव है। यदिवाणी से उसका निर्वचन करना ही आवश्यक हो, तो मात्र यह कहा जा सकता है कि निर्वाण अप्रहाण, असम्प्राप्त, अनुच्छेद, अशाश्वत, अनिरुद्ध, अनुत्पन्न है। निर्वाण को भावरूप इसलिए नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक-वस्तु या तो नित्य होगी या अनित्य। नित्य मानने पर निर्वाण के लिए प्रयासों का कोई अर्थ नहीं होगा। अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा। निर्वाण को अभाव भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का उपदेश क्यों दिया जाता ? निर्वाण को प्रहाण और सम्प्राप्त भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह मानना पड़ेगा कि वह कालविशेष में उत्पन्न हुआ और यदि वह उत्पन्न हुआ, तो वह जरामरण के समान अनित्य ही होगा। निर्वाण को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथाशास्ता के मध्यममार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की मिथ्यादृष्टि से ग्रसित होंगे, इसलिएमाध्यमिक-मत में निर्वाण भाव और अभाव-दोनों नहीं है। यह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, प्रपञ्चोपशमता है।
बौद्ध-दार्शनिकों एवं वर्तमान विद्वानों में बौद्ध-दर्शन में निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है, उसका मूल कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध रूप से कथन किया जाना है। पालि-निकाय में निर्वाण के इन विविध स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है। उदान नामक एक लघु ग्रन्थ में ही निर्वाण के इन विविध रूपों को देखा जा सकता है। निर्वाणभावात्मक-तथ्य
__इस सन्दर्भ में बुद्ध-वचन इस प्रकार हैं- 'भिक्षुओं! निर्वाणअजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत है। भिक्षुओं ! यदि वह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत नहीं होता, तो जात, भूत, कृत और संस्कृत काव्युपशम नहीं हो सकता। भिक्षुओं! क्योंकि वह अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत है, इसलिए जात, भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम जाना जाता है।51-52 धम्मपद में निर्वाण को परम सुख, सुत्तनिपात में प्रणीत एवं अमृत-पद कहा गया है, जिसे प्राप्त कर लेने पर नच्युति काभय होता है, न शोक होता है। उसे शान्त, संसारोपशम एवं सुखपद भी कहा गया है। इतिवृत्तक में कहा गया है कि वह ध्रुव, न उत्पन्न होने वाला, शोक और रागरहित है। सभी दुःखों का वहाँ निरोध हो जाता है। वह संस्कारों की शान्ति एवं अनुत है!" मार्य वा निर्माण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमार्ग
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