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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
निर्वाण सप्त प्रवृत्तिविज्ञानों कीअप्रवृत्तावस्था है, चित्त-प्रवृत्तियों का निरोधहै। स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का क्षय है। असंग के अनुसार निवृत्त चित्त (निर्वाण) अचित्त है, क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं है। वह अनुपलब्ध है, क्योंकि उसका कोई बाह्य आलम्बन नहीं है और इस प्रकार आलम्बनरहित होने से लोकोत्तर-ज्ञान है। दोष्ठुल्य अर्थात् आवरण (क्लेशाचरण और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत्तचित्त (आलयविज्ञान) परावृत्त नहीं होता, प्रवृत्त नहीं होता। वह अनावरण और अनास्रवधातु है, लेकिन असंग केवल इस निषेधात्मक-विवेचन से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, वे निर्वाण की अनिर्वचनीय एवं भावात्मक-व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं। निर्वाणअचिन्त्य है, क्योंकि तर्क से उसे जाना नहीं जा सकता, लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी वह कुशल है, शाश्वत है, सुखरूप है, विमुक्तकाय है और धर्माख्य है। इस प्रकार, विज्ञानवादी-मान्यता में निर्वाण की अभावपरक और भावपरक-व्याख्याओं के साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया गया है। वस्तुत:, निर्वाण के अनिवर्चनीय स्वरूप के विकास का श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है। लंकावतारसूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है। उसके अनुसार निर्वाण विचार की कोटियों से परे है।
विज्ञानवादी, निर्वाण का जैन-विचार से इन अर्थों में साम्य है- (1) निर्वाण चेतना का अभाव नहीं है, वरन् विशुद्ध चेतना की अवस्था है, (2) निर्वाण समस्त संकल्पों का क्षय है, वह चेतनाकी निर्विकल्पावस्था है, (3) निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत प्रवाहमान (आत्मपरिणामीपन) रहती है (यद्यपिडॉ. चन्द्रघर शर्मा ने आलयविज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है)। पं. बलदेव उपाध्याय ने भी इस प्रवाहमानता या परिवर्तनशीलता का समर्थन किया है।" (4) निर्वाणावस्था सर्वज्ञता की अवस्था है। जैन-विचारणा के अनुसार भी मोक्ष की अवस्था में केवलज्ञान और केवलदर्शन होते हैं, (5) असंग ने महायानसूत्रालंकार में धर्मकाय को, जो निर्वाण की पर्यायवाची है, स्वाभाविक-काय कहा है। जैन-विचारणा में भी मोक्ष को स्वभावदशा कहा जाता है। स्वाभाविक-काय और स्वभावदशा में अर्थसाम्य है।
4. शून्यवाद- बौद्ध-दर्शन के माध्यमिक-सम्प्रदाय में निर्वाण के अनिर्वचनीयस्वरूप का सर्वाधिक विकास हुआहै। जैन तथा जैनेतरदार्शनिकों ने शून्यता का अभावात्मकअर्थ ग्रहण कर माध्यमिक-निर्वाणको अभावात्मक-रूप में देखा है, लेकिन यह उस सम्प्रदाय के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही है।माध्यमिक-दृष्टि से निर्वाण अनिवर्चनीय
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