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________________ नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष) 453 का यह दृष्टिकोण जैन-दर्शन-सम्मत निर्वाण के अति समीप आ जाता है, क्योंकि यह जैनदर्शन के समान निर्वाणावस्था में सत्ता (अस्तित्व) और चेतना (ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग)दोनों को स्वीकार करता है। वैभाषिक-दृष्टिकोण निर्वाण को संस्कारों की दृष्टि से अभावात्मक, द्रव्य-सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक-विवेचना की दृष्टि से अनिर्वचनीय मानता है, फिर भी उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का भावात्मक या सत्तात्मक पक्ष अधिक उभरा है। 2. सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय- सौत्रान्तिक वैभाषिकों के समान यह मानते हुए भी कि निर्वाण संस्कारों का अभाव है, यह स्वीकार नहीं करते हैं कि असंस्कृत-धर्म की कोई भावात्मक-सत्ता होती है। इनके अनुसार, केवल परिवर्तनशीलता ही तत्त्व का यथार्थ स्वरूप है, अत: सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्यतत्त्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। उनकी मान्यता में ऐसा करना बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद की अवहेलना करना है। शारवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय में निर्वाण का अर्थ है-जीवन की प्रक्रिया का समाप्त हो जाना, जिसके पश्चात् ऐसा कोई जीवन-शून्य तत्त्व शेष नहीं रहता, जिसमें जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो गई हो।' निर्वाण क्षणिक चेतना-प्रवाह का समाप्त हो जाना है, जिसके बाद कुछ भी शेष नहीं रहता, क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त तत्त्व की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है और निर्वाण-दशा में परिवर्तनों की श्रृंखला समाप्त हो जाती है अत: उसके परे कोई सत्ता शेष नहीं रहती। इस प्रकार, सौत्रांतिक-निर्वाण अभावात्मक अवस्थामात्र है। सम्प्रति, बर्मा और लंका के बौद्ध भी निर्वाणको अभावात्मक याअनस्तित्व के रूप में देखते हैं। निर्वाण के भावात्मक, अभावात्मक और अनिर्वचनीय-पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक-विचारधारा निर्वाण के अभावात्मक-पक्ष पर अधिक जोर देती है। यद्यपि इस प्रकार सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय के निर्वाण का अभावात्मक-दृष्टिकोण जैन-विचार के विरोध में जाता है, तथापि सौत्रान्तिकों में भी एक ऐसा उपसम्प्रदाय था, जिसके अनुसार निर्वाण पूर्णतया अभावात्मक-दशा नहीं थी। उनके अनुसार, निर्वाण-अवस्था में भी विशुद्ध चेतना-पर्यायों का प्रवाह रहता है। यह दृष्टिकोण जैन-विचार की इस मान्यता के निकट है, जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है, अर्थात् मोक्षदशा में आत्मा में चैतन्य ज्ञान-धारा सतत रूप से प्रवाहित होती रहती है। 3. विज्ञानवाद (योगाचार)- महायान के प्रमुख ग्रन्थ लंकावतारसूत्र के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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