________________
452
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
विद्वानों के दृष्टिकोणों को इस प्रकार वर्गीकृत किया है
1. निर्वाण एक अभावात्मक-तथ्य है। 2. निर्वाण अनिवर्चनीय अव्यय-अवस्था है। 3. निर्वाण की बुद्ध ने कोई व्याख्या नहीं दी है। 4. निर्वाण भावात्मक, विशुद्ध एवं पूर्ण-चेतना की अवस्था है।
बौद्ध-दर्शन के अवान्तर-प्रमुख सम्प्रदायों का निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न प्रकार से दृष्टि-भेद है___1. वैभाषिक-सम्प्रदाय- इनके अनुसार निर्वाण संस्कारों या संस्कृत-धर्मों का अभाव है, क्योंकि संस्कृत-धर्मता ही अनित्यता है, यही बन्धन एवं दुःख है, लेकिन निर्वाण तो दु:ख-निरोध है, बन्धनाभाव है और इसलिए वह एक असंस्कृत-धर्म है और असंस्कृत धर्म के रूप में उसकी भावात्मक-सत्ता है। वैभाषिक-मत के निर्वाण के स्वरूप को अभिधर्मकोष की व्याख्या में इस प्रकार से बताया गया है- निर्वाण सत्य, असंस्कृत, स्वतंत्रसत्ता, पृथक्भूत सत्य पदार्थ (द्रव्यसत्) है। निर्वाण में संस्कार या पर्यायों का अभाव होता है, लेकिन यहां संस्कारों के अभाव का अर्थ अनस्तित्व नहीं है, वरन् एक भावात्मकअवस्था ही है। निर्वाण असंस्कृत-धर्म है। प्रो. शारवात्स्की ने वैभाषिक-निर्वाण को अनन्त मृत्यु कहा है। उनके अनुसार, निर्वाण आध्यात्मिक-अवस्था नहीं, वरन् चेतना एवं क्रिया-शून्य जड़ अवस्था है, लेकिन एस.के. मुकर्जी, प्रो. नलिनाक्ष दत्त" और प्रो. मूर्ति ने प्रो. शारवात्स्की के इस दृष्टिकोण का विरोध किया है। इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिकनिर्वाण निश्चित रूप से एक भावात्मक-अवस्था है। इसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव होता है, फिर भी उसकी असंस्कृत-धर्म के रूप में भावात्मक-सत्ता है। वैभाषिक-निर्वाण में
चेतना का अस्तित्व होता है, या नहीं होता है ? यह प्रश्न भी विवादास्पद है। प्रो. शारवात्स्की निर्वाण-दशा में चेतना का अभावमानते हैं, लेकिन प्रो. मुकर्जी इस सम्बन्ध में एक परिष्कृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं कि यशोमित्र की अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर निर्वाण की दशा में विशुद्ध मानस या चेतना रहती है।” डॉ. लाड ने अपने शोध-प्रबन्ध में एवं पं. बलदेव उपाध्याय ने बौद्धदर्शन-मीमांसा में वैभाषिक-बौद्धों के एक तिब्बतीय-उपसम्प्रदाय का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में केवल वासनात्मक एवं क्लेशोत्पादक (सासव) चेतना का ही अभाव होता है। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की दशा में अनास्रव विशुद्ध चेतना का अस्तित्व बना रहता है। वैभाषिकों के इस उपसंप्रदाय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org