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नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष)
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अभाव होता है; अतः मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थानवाला है। वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण वाला भी नहीं है। वह सुगन्ध और दुर्गन्ध वाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण, कटुक, खट्टा, मीठा एवं अम्ल रस वाला है। उसमें गुरु, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रुक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श-गुणों का भी अभाव है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, 'मोक्षदशा में न सुख है, न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है, न वहाँ इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न निद्रा है, न वहाँ चिन्ता है, न आर्त और रौद्र - विचार ही हैं। वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल (शुद्ध) विचारों का भी अभाव है ।" मोक्षावस्था तो सर्व संकल्पों का अभाव है । वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है, वह पक्षातिक्रांत है। इस प्रकार, मुक्तावस्था का निषेधात्मक - विवेचन उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है।
(स) अनिर्वचनीय - दृष्टिकोण - मोक्षतत्त्व का निषेधात्मक - निर्वचन अनिवार्य रूप से हमें अनिर्वचनीयता की ओर ही ले जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हुए जैन - दार्शनिकों ने उसे अनिवर्चनीय ही माना है।
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आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है, 'समस्त स्वर वहाँ से लौट आते हैं, अर्थात् ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का वह विषय नहीं है। वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, अर्थात् वह वाणी विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता। वह अनुपम है, अरूपी है, सत्तावान् है । उस अपद का कोई पद नहीं है, अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है, जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके 132
10. बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूप
भगवान् बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या है ? यह विवाद का विषय रहा है।
बौद्ध दर्शन के अवान्तर - सम्प्रदायों में भी निर्वाण के स्वरूप को लेकर आत्यन्तिक विरोध
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पाया जाता है। आधुनिक विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले हैं, जो एक तुलनात्मक-अध्येता को अधिक कठिनाई में डाल देते हैं। वस्तुत:, इस कठिनाई का मूल कारण पालि-निकाय से निर्वाण का विभिन्न दृष्टियों से, अलग-अलग प्रकार से विवेचन किया जाना है। श्री पुंसें एवं प्रो. नलिनाक्षदत्त ने " बौद्ध - निर्वाण के सम्बन्ध में
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