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________________ भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप 43 अध्ययन जीवन के परम श्रेय और उसकी उपलब्धि के मार्ग का निर्देशक बन सकता है, और इसलिए उनका अध्ययन भी अपेक्षित है। ____ 2. आचारदर्शन आचरण के औचित्य और अनौचित्यका विवेक सिखाता है- जीवन कर्ममय है। कर्मशून्य जीवन जड़ता है। जीवन और आचरण में इतना निकटतम सम्बन्ध है कि दोनों साथ-साथ चलते हैं। एक ओर आचरण की सम्भावना जीवन के अस्तित्व के साथ जुड़ी है, तो दूसरी ओर आचरण ही जीवन का लक्षण है। जैनदर्शन में आचरण को जीव का लक्षण और कर्म को संसार का मूल माना गया है। जगत् के सभी प्राणी कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं से युक्त होते हैं। वे निरन्तर क्रियाशील रहते हैं। गीता कहती है कि जगत् के प्राणी किसी भी क्षण क्रिया (कर्म) से विरत नहीं होते हैं।' बौद्ध विचारधारा के अनुसार तो क्रियाशीलता ही जीवन है, क्रिया से भिन्न कर्ता का अस्तित्व ही नहीं है। क्रिया ही कर्ता है। पाश्चात्य चिन्तक मैथ्यू आर्नाल्ड के अनुसार, आचरण जीवन का तीन-चौथाई भाग है।" मैकेंजी का कथन है कि प्रयोजनयुक्त क्रियाशीलता की दृष्टि से देखा जाए, तो आचरण ही जीवन है। इस प्रकार, यदि जीवन आचरणमय है, तो प्रश्न उठता है कि क्या आचरण के सभी रूपों की उपयोगिता समान है? उत्तर स्पष्टरूप से नकारात्मक है। आचरण के सभी रूपों की उपयोगिता समान नहीं मानी जा सकती।आचरण के कुछ प्रारूप व्यक्ति एवं समाज के लिए कल्याणकारी होते हैं और कुछ प्रारूप अकल्याणकारी, अत: स्वाभाविक ही यह जिज्ञासा होती है कि आचरण के कौनसे प्रारूप वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के लिए हितकर हैं और कौन-से अहितकर? दूसरे शब्दों में, कौन-सा आचरण उचित एवं कौन-सा अनुचित है ? आचारदर्शन आचरण के विज्ञान के रूप में आचरण के औचित्य एवं अनौचित्य का निर्देश करता है। दशवैकालिक में कहा गया है कि श्रुत के अध्ययन के द्वारा ही कल्याणकारी और पापकारी प्रवृत्तियों का बोध होता है। गीता के अनुसार, कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की व्यवस्था में शपन्न हो प्रमाणभूत हैं।14 इस प्रकार, पुण्य-पाप, उचित-अनुचित या कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के बोध के लिए आचारदर्शन का अध्ययन नितान्त आवश्यक है। ___3. आचारदर्शन आचरण का मूल्यांकन और नैतिक-प्रतिमान की समीक्षा करता है- चेतना के साथ जब विवेक प्रस्फुटित होता है, तब मनुष्य अपने और अपने साथियों के आचरण को हर कदम पर तौलता है, निर्णय करता है और विचार करता है कि वह आचरण मानव-जीवन के लक्ष्य की दिशा में है या नहीं। युगों से मानव अपने आचरण का मूल्यांकन करता रहा है। चेतन अथवा अचेतन रूप में हर विचारशील मनुष्य के समक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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