SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उनके उत्तर हमें आचारदर्शन के अध्ययन से ही प्राप्त होते हैं। वही परमश्रेय के विषय में हमें दिशा-निर्देश करता है । मानव में अपने और अपने साथियों के आचरण को तौलने की जो प्रवृत्ति है, उसका सम्यक् समाधान भी आचारदर्शन के अध्ययन द्वारा ही पाया जा सकता है। आचारदर्शन ही औचित्य - अनौचित्य का बोध कराता है, वही साध्य और उसकी प्राप्ति के साधना-पथ का निर्देश करता है और शुभाशुभ के प्रतिमान को भी निश्चित करता है। इस तरह आचारदर्शन के बहुमुखी अध्ययन की उपयोगिता अपने में महत्वपूर्ण है, जिसे निम्नलिखित आधारों पर जाना जा सकता है - 1. आचारदर्शन साध्य और उसकी उपलब्धि के मार्ग का निर्देशक हैसामान्यतया गति जड़ और चेतन - दोनों में होती है। जड़ की गति अन्धी होती है, जबकि चेतन की गति लक्ष्योन्मुख होती है। लक्ष्योन्मुख दिशा में आचरण करना ही चैतन्य-जीवन की विशिष्टता है। आत्म चेतना एवं विवेकशीलता के कारण मनुष्य में स्वतः अपने लक्ष्य के निर्धारण का कार्य महत्वपूर्ण है। जीवन का परमश्रेय या आदर्श क्या है ? क्या भूख, प्यास, मैथुन आदि की पूर्ति ही जीवन का लक्ष्य है, अथवा इनसे ऊपर भी जीवन का कोई महान् एवं व्यापक आदर्श है ? यदि है तो वह क्या है ? इन प्रश्नों के उत्तर आचारदर्शन के अध्ययन द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। उसी के द्वारा परमश्रेय या परमशुभ को जाना जा सकता है और वही हमें परमश्रेय की उपलब्धि का मार्ग बता सकता है। आचारदर्शन के सम्यक् अध्ययन के अभाव में न तो जीवन के आदर्श का बोध सम्भव है, न उसकी उपलब्धि का मार्ग मिल सकता है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि अन्धा चाहे कितना ही बहादुर हो, वह शत्रु सेना को पराजित नहीं कर सकता; उसी प्रकार अज्ञानी या लक्ष्यबोध से विहीन साधक भी विकारों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता । ' आचार्य बट्टकेर भी मूलाचार में लिखते हैं कि जिनशासन में केवल दो ही बातें बताई गई - मार्ग (साधनापथ) और मार्ग का फल ( साधना का आदर्श ) । ' इस प्रकार जैनविचारकों की दृष्टि में मनुष्य के लिए परमश्रेय और उसकी प्राप्ति का मार्ग - दोनों का ज्ञान आवश्यक है, जो आचारदर्शन के अध्ययन से ही मिल सकता है। जहाँ बौद्ध आचारदर्शन में तृतीय आर्यसत्य दुःख-निरोध (निर्वाण ) के रूप में परमश्रेय और चतुर्थ आर्यसत्य अष्टांगिक मार्ग के रूप में साधनापथ का बोध कराया गया है, वहीं जैन - आचारदर्शन में भी रत्नत्रय को जीवन के आदर्श, पूर्णता या मोक्ष की उपलब्धि का साधन बताया गया गीता में श्रीकृष्ण ने भी परमश्रेय और उसके साधना-मार्ग के रूप में ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का उपदेश दिया है। इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का 42 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy