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________________ नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष) 447 और तृष्णासे रहित है, जो त्रिकालदर्शी, (कर्म) रज और (कर्म) पापसेरहित, विशुद्ध जन्मक्षय को प्राप्त है, उसे बुद्ध (अर्हत्) कहते हैं। सुत्तनिपात में आदर्श मुनि,आदर्श ब्राह्मण, आदर्श श्रमण, उपशान्तात्मा, स्थितात्मा आदि का वर्णन भी इसी रूप में किया गया है। 7. गीता में स्थितप्रज्ञ का जीवनादर्श जैन-दर्शन के वीतराग और बौद्ध-दर्शन के अर्हत् के जीवनादर्श के समान गीता में स्थितप्रज्ञ, प्रियभक्त एवं योगी के जीवनादर्श निरूपित हैं। गीता में श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ का लक्षण बताते हएकहते हैं कि 'जब व्यक्ति मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट होता है, दुःखों की प्राप्ति में भी जो उद्विग्न नहीं होता तथा सुखों के प्रति जिसके मन में कोई स्पृहा नहीं है, जिसके राग, भय और क्रोध समाप्त हो गए हैं, अर्थात् वीतराग है, जिसकी किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं है और जो शुभाशुभ के प्राप्त होने पर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, जिसकी इन्द्रियाँ सब प्रकार के विषयों से वश में की हई हैं, ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। जो पुरुष इस प्रकार सम्पूर्ण कामनाओं कात्याग कर ममता, अहंकार और स्पृहासे रहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।7।' गीता भक्त के सम्बन्ध में भी यही जीवनादर्श प्रस्तुत करती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि 'जो सभी प्राणियों में द्वेषभाव एवं स्वार्थ से रहित होकर निष्कामभाव से सभी के प्रति मैत्रीयुक्त एवं करुणावान् है, जो ममता और अहंकार से रहित, सुख-दुःख में समभावरखनेवाला, क्षमाशील, संतुष्ट योगी, यतात्मा, दृढ़निश्चयी है, जिसका मन और बुद्धि परमात्मा में नियोजित है, जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी उद्वेग को प्राप्त नहीं होता, हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग से जोरहित है और जो आकांक्षा से रहित, अंतर-बाह्य शुद्ध, व्यवहारकुशल, व्यथा से रहित, सभी आरम्भों (हिंसादि पापकर्मों) का त्यागी है, जो न कभी हर्षित होता है, न कभी द्वेष करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के प्रति फलासक्ति को त्याग चुका है, जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दुःख द्वन्द्वों में समभाव से युक्त है। 8. शांकरवेदांत में जीवन्मुक्त के लक्षण आचार्य शंकर ने भी विवेकचूड़ामणि में जीवन्मुक्त के लक्षणों का विवेचन किया है। वे लिखते हैं कि 'जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, जो निरन्तर आत्मानन्द का अनुभव करता है और प्रपंच को भूला-सा रहता है, वृत्ति के लीन रहते हुए भी जो जागता रहता है, किन्तु वास्तव में जो जाग्रति केधर्मों से रहित है तथा जिसका बोधसर्वथा वासनारहित है, वह पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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