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________________ 446 6. बौद्ध दर्शन में अर्हत् का जीवनादर्श AD भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन में नैतिक जीवन का आदर्श अर्हतावस्था माना गया है। - बौद्ध दर्शन में अर्हत् अवस्था से तात्पर्य तृष्णा या राग-द्वेष की वृत्तियों का पूर्ण क्षय है । जो राग-द्वेष और मोह से ऊपर उठ चुका है, जिसमें किसी भी प्रकार की तृष्णा नहीं है, जो सुख-दुःख, लाभ-अलाभ और निन्दा-प्रशंसा से समभाव रखता है, वही अर्हत् है । बुद्ध ने अनेक प्रसंगों पर अर्हत् के जीवनादर्श को प्रस्तुत किया है। बौद्ध दर्शन में अर्हत् को स्थितात्मा, केवली, उपशान्त आदि नामों से भी जाना जाता है। धम्मपद एवं सुत्तनिपात में अर्हत् के जीवनादर्श का निम्न विवरण उपलब्ध है। धम्मपद के अर्हत-वर्ग में कहा गया है कि 'जो पृथ्वी के समान क्षुब्ध नहीं होता, जो इन्द्र के स्तम्भ के समान अपने व्रत में दृढ़ है, जो झील के सदृश कीचड़ अथवा चित्तमल से रहित है, उसके लिए संसार (जन्म-मरण का चक्र) नहीं होता। जो सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति से विमुक्त तथा उपशान्त हो चुका है, ऐसे व्यक्ति का मन शान्त हो जाता है। जो मनुष्य अंधविश्वासी नहीं है, जो अकृत अर्थात् निर्वाण को जानने वाला है, जिसने (जन्म-मरण) के बन्धनों को काट दिया है, जो (पापपुण्य को) अवकाश नहीं देता, जिसने तृष्णा को निकाल दिया है, वह पुरुषोत्तम कहलाता है''।' सुत्तनिपात में भी उपशांत पुरुष के स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि 'जो इस शरीर के त्यागने के पहले ही तृष्णा-रहित हो गया हो, जो भूत तथा भविष्य पर आश्रित नहीं है और न आश्रित है वर्तमान पर, उसके लिए कहीं आसक्ति नहीं है। जो क्रोध, त्रास, आत्म-प्रशंसा और चंचलता-रहित है, जो विचारपूर्वक बोलनेवाला है, जो गर्वरहित है और वचन में संयमी है, जो दृष्टियों के फेर में नहीं पड़ता, जो आसक्ति, ढोंग, स्पृहा और मात्सर्य से रहित है, जो प्रगल्भी नहीं है, घृणा रहित है और चुगलखोर नहीं है, जो प्रिय वस्तुओं में रत नहीं होता और अभिमानरहित है, जो शान्त और प्रतिभाशाली है, वह न तो अति श्रद्धालु होता है और न किसी से उदास रहता है । जो अनासक्ति भाव को जानकर आसक्तिरहित हो गया है, जिसमें भव या विभव के प्रति तृष्णा नहीं है, विषयों के प्रति उपेक्षावान् है, उसे उपशान्त कहता हूँ। उसके लिए ग्रन्थियाँ नहीं हैं, क्योंकि वह तृष्णा से परे हो गया है" ।' उसी ग्रन्थ में सभियपरिव्राजक को भी शान्त पुरुष एवं बुद्ध का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जो स्वयं मार्ग पर चलकर शंकाओं से परे हो गया है, जो जन्म - मृत्यु को दूर कर परिनिर्वाण (जीवन्मुक्ति) संप्राप्त है, जिसका ब्रह्मचर्यवास का उद्देश्य पूरा हो गया है, जो सर्वत्र उपेक्षाभाव (अनासक्ति) से युक्त है, जो हिंसा से विरत, स्मृतिवान् (अप्रमत्त) प्रज्ञ, निर्मल - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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