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________________ नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष) 445 परमात्मा को भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। जीवन-मुक्ति प्राथमिक अवस्था है और व्यावहारिक-जीवन में इसे नैतिक-जीवन का जीवन-आदर्श स्वीकार किया जा सकता है। जिस जीवन-मुक्त पुरुष को जैन-परम्परा में वीतराग कहा गया है, उसे ही वैदिक-परम्परा में स्थितप्रज्ञ और बौद्ध-परम्परा में अर्हत् कहा गया है। आगे, अब हम इसी जीवन-मुक्त पुरुष के सम्बन्ध में विचार करेंगे। 5. जैनदर्शन में वीतराग का जीवनादर्श जैन-दर्शन में नैतिक-जीवन का परमसाध्य वीतरागता की प्राप्ति रहा है। जैनदर्शन में वीतराग एवं अरिहन्त (अर्हत्) इसी जीवनादर्श के प्रतीक हैं। वीतराग की जीवनशैली क्या होती है, इसका वर्णन जैनागमों में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। संक्षेप में, उन आधारों पर उसे इस प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है। जैनागमों में आदर्श पुरुष के लक्षण बताते हुए कहा गया है जो ममत्व एवं अहंकार से रहित है, जिसके चित्त में कोई आसक्ति नहीं है और जिसने अभिमान का त्याग कर दिया है, जो प्राणीमात्र के प्रति समभाव रखता है, जोलाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान-अपमान और निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखता है, जिसे न इस लोक की और न परलोक की कोई अपेक्षा है, किसी के द्वारा चन्दन का लेप करने पर और किसी के द्वारा बसूले से छीलने पर, जिसके मन में लेप करने वाले पर राग-भाव और बसूले से छीलने वाले परद्वेष-भाव नहीं होता, जो खाने में और अनशन-व्रत करने में समभाव रखता है, वही महापुरुष है। जिस प्रकार अग्निसे शुद्ध किया हुआ सोना निर्मल होता है, उसी प्रकार जो राग-द्वेष और भय आदि से रहित है, कुछ निर्मल है। जिस प्रकार कमल कीचड़ एवं पानी में उत्पन्न होकर भी उसमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो संसार के काम-भोगों में लिप्त नहीं होता, भाव से सदैव ही विरत रहता है, उस विरतात्मा, अनासक्त पुरुष की इन्द्रियों के शब्दादि विषय भी मन में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं करते। जो विषय रागी व्यक्तियों को दुःख देते हैं, वे वीतरागी के लिए दु:ख के कारण नहीं होते हैं। वह राग, द्वेष और मोह के अध्यवसायों को दोषरूप जानकर सदैव उनके प्रति जाग्रत रहता हुआ माध्यस्थभाव रखता है, किसी प्रकार के संकल्प-विकल्प नहीं करता हुआ तृष्णा का प्रहाण कर देता है। वीतराग पुरुष राग-द्वेष और मोह का प्रहाण कर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय-कर्म का क्षय कर कृतकृत्य हो जाता है। इस प्रकार मोह, अन्तराय और आम्रवों से रहित वीतराग सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होता है। वह शक्लध्यान और सुसमाधि सहित होता है और आयु का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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