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________________ भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन - जाना जाता है। प्रारब्ध की समाप्तिपर्यन्त छाया के समान सदैव साथ रहने वाले, इस शरीर के वर्त्तमान रहते हुए भी इसमें अहं ममभाव ( मैं - मेरापन ) का अभाव हो जाना, ती हुई बात को याद न करना, भविष्य की चिन्ता न करना और वर्तमान में प्राप्त सुखदुःखादि में उदासीनता, अपने आत्मस्वरूप में सर्वथा पृथक्, इस गुण-दोषमय संसार में सर्वत्र समदर्शी होना, इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति में समान भाव रखना जीवन्मुक्त पुरुष का लक्षण है" ।' 448 वस्तुतः, जीवन्मुक्त व्यक्तित्व के सम्बन्ध में सभी आचार - दर्शनों में पर्याप्त विचारसाम्य है। इतना ही नहीं, जीवन्मुक्त के लक्षणों में सभी ने समान शब्दों का भी उपयोग किया है। सभी आचार - दर्शनों में जीवन्मुक्त, स्थितप्रज्ञ, स्थितात्मा, वीतराग आदि शब्द पर्यायवाची हैं। सभी आचार - दर्शनों के अनुसार जीवन्मुक्त वह है, जो राग-द्वेष और वासनाओं से ऊपर उठ चुका है एवं वीतराग, अनासक्त और समभाव से युक्त है। अरस्तू के आदर्श पुरुष का विवेचन और आधुनिक मनोविज्ञान में किया गया परिपक्व व्यक्तित्व का विवेचन भी कुछ अर्थों में जीवन्मुक्त के प्रत्यय के निकट है। 20 जीवन्मुक्त के देह छोड़ने पर जो अवस्था प्राप्त होती है, उसे विदेह, मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण कहा गया है। हाँ, समालोच्य दर्शनों में मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ मत - वैभिन्न्य अवश्य हैं। 9. जैन दर्शन में मोक्ष का स्वरूप जैन तत्त्व-मीमांसा के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है, वह मोक्ष है। 21 कर्ममलों के अभाव में कर्मबन्धन भी नहीं रहता और धन का अभाव ही मुक्ति है। 22 मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है। 23 अनात्मा में ममत्व-आसक्तिरूप आत्माभिमान का दूर हो जाना ही मुक्ति है। 24 - धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्यायदृष्टि का विषय है। आत्मा का विरूप- पर्याय ही बन्धन है और स्वरूप - पर्याय मोक्ष है। पर पदार्थ या पुद्गल परमाणुओं निमित्त से आत्मा में जो पर्याएँ उत्पन्न होती हैं और जिसके कारण 'पर' में आत्मभाव (मेरापन ) उत्पन्न होता है, वही विरूपपर्याय है, परपरिणति है, 'स्व' की 'पर' में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है । बन्धन और मुक्ति दोनों आत्म- द्रव्य या चेतना की ही दो अवस्थाएँ हैं। विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाए, तो बन्धन और मुक्ति की व्याख्या करना संभव नहीं है, क्योंकि आत्म-तत्त्व स्वस्वरूप का परित्याग कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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