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नैतिक - जीवन का साध्य (मोक्ष)
आत्म
पूर्णता बनकर प्रकट हो जाती है। भौतिक-स्तर पर 'पर' को पाकर 'स्व' को खोते हैं, लेकिन आध्यात्मिक-जीवन में 'पर' को खोकर 'स्व' को पा जाते हैं। जैन दर्शन में इसे यह कहकर प्रकट किया गया है कि जितनी पर - परिणति या पुद्गल - परिणति है, उतना ही - विस्मरण है, 'स्व' को खोना है और जितना पर परिणति या पुद्गल - परिणति का अभाव है, उतना ही आत्मरमण या 'स्व' की उपलब्धि है। जितनी 'पर' में आसक्ति होती है, उतने ही हम 'स्व' से दूर होते हैं। इसके विपरीत, 'पर' में आसक्ति का जितना अभाव होता है, उतना ही हम 'स्व' या आत्मा के समीप होते हैं। जितनी मात्रा में वासनाएँ, अहंकार और चित्त - विकल्प कम होते हैं, उतनी ही मात्रा में आत्मोपलब्धि या आत्मसाक्षात्कार होता है। जब चेतना में इनका पूर्ण अभाव हो जाता है, तो आत्मसाक्षात्कार आत्मपूर्णता के रूप में प्रकट हो जाता है।
जैन- दृष्टिकोण और आत्म-साक्षात्कार- जैन- नैतिकता का साध्य भी आत्मोपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'मोक्षकामी को आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए और आत्मा की ही अनुभूति ( अनुचरितव्य) करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर (संयम) और योग, सब अपने-आप को पाने के साधन हैं, क्योंकि यही आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, त्याग में है, संवर में है और योग में है 2 ।' आचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोण से यह स्पष्ट हो जाता है कि नैतिक-क्रियाएँ आत्मोपलब्धि ही हैं । व्यवहारनय से जिन्हें ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है, निश्चयनय से वह आत्मा ही है। इस प्रकार नैतिक जीवन का अर्थ आत्म-साक्षात्कार या आत्मलाभ है।
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जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों में परम साध्य
. जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों में नैतिक जीवन का परमसाध्य या परमश्रेय निर्वाण या आत्मा की उपलब्धि ही माना गया है। भारतीय परम्परा में मोक्ष, निर्वाण, परमात्मा की प्राप्ति आदि जीवन में चरम लक्ष्य या परमश्रेय के ही पर्यायवाची हैं, लेकिन हमें यह स्पष्ट जान लेना चाहिए कि भारतीय परम्परा के मोक्ष या निर्वाण का तात्पर्य क्या है ? सामान्यतया, मोक्ष या निर्वाण से हम किसी मरणोत्तर - अवस्था की कल्पना करते हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति उससे भिन्न है। जिसे सामान्यतया मोक्ष या निर्वाण कहा जाता है, वह तो उसका मरणोत्तर-परिणाममात्र है, जो कि हमें जीवन - मुक्ति के रूप में इसी जीवन में उपलब्ध हो जाता है। वस्तुत:, नैतिक जीवन का साध्य यही जीवन- मुक्ति है, जिसे व्यक्ति को यहीं
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