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नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष)
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वस्तुत:, हमारी चेतना में अपनी अपूर्णता का जो बोध है, वह स्वयं ही हमारे अन्तस् में निहित पूर्णता का संकेत है। हमें अपनी अपूर्णता का स्पष्ट बोध है, लेकिन यह अपूर्णता का स्पष्ट बोध बिना पूर्णता के प्रत्यय के सम्भव नहीं। यदि हमारी चेतना याआत्मा, अनन्त या पूर्ण न हो, तो हमें अपनी-अपूर्णता का बोध भी नहीं हो सकता। ब्रेडले का कथन है कि 'चेतना अनन्त है, क्योंकि वह अनुभव करती है कि उसकी क्षमताएँ सान्त एवं सीमित हैं, लेकिन सीमा या अपूर्णता को जानने के लिए असीम एवं पूर्ण होना आवश्यक है। जब हमारी चेतना यह ज्ञान रखती है कि वह सान्त, सीमित या अपूर्ण है, तो उसका यह सीमित होने का ज्ञान स्वयं इस सीमा को पार कर जाता है। इस प्रकार ब्रेडले 'स्व' में निहित पूर्णता का संकेत करते हैं। आत्मा पूर्ण है, यह बात भारतीय-दर्शन के विद्यार्थी के लिए नई नहीं है, लेकिन इस आत्मपूर्णता का अर्थ यह नहीं कि हम पूर्ण हैं। पूर्णता हमारी क्षमता (Capacity) है, योग्यता (Ability) नहीं। पूर्णता के प्रकाश में हमें अपनी अपूर्णता का बोध होता है, अपूर्णता का बोध पूर्णता की उपस्थिति का संकेत अवश्य है, लेकिन वह पूर्णता की उपलब्धि नहीं है। जैसे दूध में प्रतीत होने वाली स्निग्नधता उसमें निहित मक्खन की सूचक अवश्य है, लेकिन मक्खन की उपलब्धि नहीं है। जैसे दूध में निहित मक्खन को पाने के लिए प्रयत्न आवश्यक है, वैसे 'स्व' में निहित पूर्णता की उपलब्धि के लिए प्रयत्न आवश्यक है। नैतिकता उसी सम्यक् प्रयत्न की सूचक है, जिसके माध्यम से हम उस पूर्णता को उपलब्ध कर सकते हैं। हेडफील्ड लिखते हैं कि हम जो कुछ हैं, वही हमारा 'स्व' (Self) नहीं है, वरन् हमारा 'स्व' वह है, जो कि हम हो सकते हैं। हमारी सम्भावनाओं में ही हमारी सत्ता अभिव्यक्त होती है और इसी अर्थ में आत्मपूर्णता हमारा साध्य भी है। जैसे एक बालक में निहित समग्र क्षमताएँ जहाँ एक ओर उसकी सत्ता में निहित हैं, वहीं दूसरी ओर उसका साध्य हैं, ठीक उसी प्रकार आत्मपूर्णता हमारा साध्य है। यदि हम आत्मपूर्णता को नैतिक-जीवन का परम साध्य मानते हैं, तो हमें यह भी स्पष्ट करना होना कि आत्मपूर्णता का तात्पर्य क्या है ? आत्मपूर्णता का तात्पर्य आत्मोपलब्धि ही है, वह स्व में स्व' को पाना है, लेकिन जिस आत्मा या स्व' को उपलब्ध करना है, वह सीमित या अपूर्ण आत्मा नहीं, वरन् ऐसी आत्मा है, जो समग्र वासनाओं, संकल्पों एवं संघर्षों से ऊपर है, विशुद्ध दृष्टा एवं साक्षी-स्वरूप है। हमारी शुद्ध सत्ता हमारे ज्ञान, भाव और संकल्प, सभी का आधार होते हुए भी सभी से ऊपर एक निर्विकल्प, वीतराग साक्षी की स्थिति है। इसी स्थिति की उपलब्धि को पूर्णात्मा का साक्षात्कार, परम आत्मा की उपलब्धिकहा जाता है। पाश्चात्य-दर्शन में पूर्णता के दो अर्थ
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