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________________ 440 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उपस्थित रहती है और जब तक कोई भी चाह बनी हुई है, समत्व नहीं हो सकता। कामना, वासना और चाह, सभी असन्तुलन की सूचक हैं, उनकी उपस्थिति में समत्व सम्भव नहीं होता। समत्व तो पूर्ण निष्काम एवं अनासक्त जीवन में सम्भव है। जब तक अपूर्णता है, कामना है और जब तक कामना है, समत्व नहीं है, अत: पूर्ण समत्व के लिए आत्मपूर्णता आवश्यक है। हमारे व्यावहारिक-जीवन में भी हमारा प्रयत्न चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक-पक्षों के विकास के निमित्त होता है। अन्तश्चेतना सदैव ही इस दिशा में प्रत्यनशील रहती है कि हम अपनी चेतना के इन तीनों पक्षों में देशकालगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सकें। व्यक्ति अपनी ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक-क्षमताओं की पूर्णता चाहता है। सीमितता और अपूर्णता भी व्यक्ति के मन की वेदना है और वह सदैवही इस वेदना से छुटकारा पाना चाहता है। उसकी सीमितता और अपूर्णता जीवन की वह प्यास है, जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है। जब तक आत्मपूर्णता को प्राप्त नहीं कर लिया जाता, तब तक पूर्ण समत्व नहीं होता और जब तक पूर्ण समत्व नहीं होता, नैतिक-पूर्णता भी सम्भव नहीं होती। नैतिक-पूर्णता, आत्मपूर्णता और पूर्ण समत्व के पर्यायवाची ही हैं। काण्ट ने नैतिक-विकास की दृष्टि से आत्मा की अमरता को अनिवार्य माना है। नैतिक-पूर्णता आत्मपूर्णता की अवस्था में ही सम्भव है। यह पूर्णया या अनन्त तक प्रगति, केवल इस मान्यता पर निर्भर है कि व्यक्तित्व में उस पूर्णता को प्राप्त करने की क्षमता है और उस अनन्तता या पूर्णता तक पहुँचने के लिए उसकी स्थिरता भी अनन्त है। दूसरे शब्दों में, आत्मा अमर है। काण्ट ने अनन्त की दिशा में नैतिकप्रगति के लिए आत्मा की अमरता पर बल दिया, लेकिन अरबन ने प्रगति को भी नैतिकता की एक स्वतन्त्र मान्यता कहा है। यदि नैतिक-प्रगति की सम्भावना को स्वीकार नहीं किया जाएगा, तो नैतिक-जीवन का महान उद्देश्य समाप्त हो जाएगा और नैतिकता पारस्परिकसम्बन्धों की एक कहानी-मात्र रहेगी। पाश्चात्य-जगत् में नैतिक-प्रगति का तात्पर्य सामाजिक-जीवन की प्रगति है और भारतीय-दर्शन में नैतिक-प्रगति से तात्पर्य, वैयक्तिक आध्यात्मिक-विकास है। मोक्ष, निर्वाण या परमात्मा की उपलब्धि के रूप में नैतिक-पूर्णता की प्राप्ति को सम्भव मानना नैतिक-जीवन की दृष्टि से अति आवश्यक है। यदि नैतिक-पूर्णता या परमश्रेय की प्राप्ति सम्भव नहीं है, तो नैतिक-जीवन और नैतिक-प्रगति का कोई अर्थ नहीं रहेगा। नैतिकप्रगति के अन्तिम चरण के रूप में आत्मपूर्णता आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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