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________________ नैतिक 5- जीवन का साध्य (मोक्ष) कल्पना नहीं करते। उनका नैतिक आदर्श व्यावहारिक जीवन में आत्मसात् करने की वस्तु है। गीता और जैन दर्शन में जिस मोक्ष और बौद्ध दर्शन में जिस निर्वाण की परिकल्पना है, वह तो पूर्ण समत्व की अवस्था है। वस्तुतः, मोक्ष या निर्वाण मरणोत्तर स्थिति नहीं है। हम इस समत्व की साधना के मधुर फल का रसास्वादन इसी जीवन में कर सकते हैं। बुद्ध और महावीर के युग में भी यह प्रश्न उठाया गया था कि नैतिक-साधना का तात्कालिक - फल 439 - है ? क्योंकि जो लोग किसी मरणोत्तर अवस्था में विश्वास नहीं करते, उनके लिए इस प्रश्न का उत्तर दिया जाना आवश्यक भी था जो नैतिक दर्शन और धार्मिक - जीवन की ऐहिक समस्याओं का समाधान नहीं कर पाता और मात्र पारलौकिक जीवन की मधुर लोरी सुनाकर हमें वर्त्तमान की समस्याओं के प्रति तन्द्रित करता है, वह न तो सच्चा नैतिकदर्शन हो सकता है, न धर्म । मगधाधिपति अजातशत्रु ने इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही बुद्ध से यह प्रश्न किया था कि श्रावण्य का प्रत्यक्ष फल क्या है ? बुद्ध ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया है वह भारतीय नैतिक-दर्शन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बुद्ध के समग्र कथन को संक्षेप में इन शब्दों में प्रस्तुत किया जा सकता है- 'निर्दोष आचरण (शील-संवरण) से निर्भय जीवन, वासनाओं एवं वितर्कों के प्रहाण से प्रशान्त मन:स्थिति (चित्त-समाधि) एवं एकाग्रता तथा प्रशान्त, एकाग्र, निर्मल (रागद्वेष के मल से रहित ) निष्पाप एवं निश्चल चित्त से तत्त्व, वस्तुस्वरूप या परमार्थ का यथार्थ बोध प्राप्त हो जाता है। यही श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल है ।" वस्तुत:, सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र या सम्यक् - शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा कर्म, ज्ञान और भक्ति रूप नैतिक आचरण से जीवन के तीन पक्ष आचार, विचार और अनुभूति में समत्व उत्पन्न होता है, जो इसी जीवन में मनुष्य को अभूतपूर्व शान्ति और अतुल आनन्द प्रदान करता है, क्योंकि अशान्ति, दुःख, वेदना एवं तनाव का कारण आसक्ति, राग या तृष्णा है। उसका प्रहाण होने पर जीवन में स्वाभाविक शान्ति और आनन्द का होना अनिवार्य है। भारतीय आचार-दर्शन अपने साधना-मार्ग के रूप में इसी राग-द्वेष, आसक्ति या तृष्णा के प्रहाण का उपाय बताते हैं, जिससे व्यक्ति शाश्वत शान्ति और चिरसौख्य का आस्वादन कर सके । (ब) आत्म- पूर्णता नैतिक- जीवन का साध्य केवल समत्व का संस्थापन ही नहीं है, वरन् इससे भी अधिक है; और वह है आत्मपूर्णता की दिशा में प्रगति, क्योंकि जब तक अपूर्णता है, समत्व के विचलन की सम्भावनाएँ भी हैं। अपूर्णता की अवस्था में सदैव ही चाह (Want ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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