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________________ नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष) 433 14 नैतिक-जीवन का साध्य (मोक्ष) 1. जीवन-लक्ष्य की शोध में प्राणीय-व्यवहार लक्ष्यात्मक होता है, लेकिन लक्ष्य का चयन एवं निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है। लक्ष्य के निर्धारण में मात्र प्रेरणा ही काम नहीं करती, वरन् उसमें बुद्धि का भी योगदान रहता है। बौद्धिक-विवेक इस बात का भी विचार करता है कि कौनसा आदर्श उसके लिए श्रेयस्कर है। जीवन-व्यवहार के श्रेयस्कर आदर्श का निर्धारण नीतिशास्त्र करता है। कठोपनिषद् में कहा गया है कि श्रेय (परम-कल्याण) और प्रेय (वासनापूर्ति) के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। दोनों मनुष्य को दो भिन्न-भिन्न दशाओं में प्रेरित करते हैं। उसमें जो श्रेय कावरण करता है, वहशुभका अनुसरण करता है और जो प्रेय का वरण करता है, वह पतन कीओर जाता है। प्रेय और श्रेय-दोनों ही साथ-साथ मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं। विवेकवान् मनुष्य दोनों का सम्यक् विचार कर प्रेय (भोग-मार्ग) के स्थान पर श्रेय (कल्याण-मार्ग) का वरण करता है, जबकि मूर्ख भौतिक-सुखों के पीछे प्रेय (भोगमार्ग) का वरण करता है।' जन्म पा लेना ही पर्याप्त नहीं है। वह तो जीवन का आरम्भबिन्दु है, भूमिका है, उसमें सम्भावनाएँ तो हैं, लेकिन पूर्णता नहीं। वहाँ से पूर्णता की दिशा में वास्तविक विकास प्रारम्भ होता है, लेकिन उसे गंतव्य मानकर रुक जाना विकास की समस्त सम्भावनाओं को नष्ट कर देना है। जिसे हम जीना कहते हैं, वह तो नित्य मृत्यु की ओर प्रयाण है। जब तक हमें जीवन की सम्यक दिशा या जीवन का लक्ष्य ज्ञात नहीं होता, तब तक जीने का कोई अर्थ नहीं। 2. जीवन क्या है ? वस्तुत:, जीवन का लक्ष्य या परमसाध्य क्या है, इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि जीवन क्या है ? क्योंकि जीवन का लक्ष्य जीवन से हटकर नहीं हो सकता। जीवन के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं। एक, जैविक-दृष्टि और दूसरी, आध्यात्मिक-दृष्टि। जैविक-दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि जीवन एक ऐसी प्रक्रिया है, जो सदैव ही परिवेश के प्रति क्रियाशील है। जीवन की यह क्रियाशीलता मात्र सन्तुलन बनाए रखने का प्रयास है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में जीवन गतिशील सन्तुलन है।' स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के सन्तुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन अपनी क्रियाशीलता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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