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बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा)
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तो दोनों विचारणाएँ एक-दूसरे के निकट आ जाती हैं।
___गीता पुरातन कर्मों से छूटने के लिए भक्ति को भी स्थान देती है। गीता के अनुसार यदिभक्त अपने को पूर्णतया निश्छलभाव से भगवान् के चरणों में समर्पित कर देता है, तो भी वह सभी पुरातन पापों से मुक्त हो जाता है। गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि 'तू सबधर्मों का परित्याग कर मेरीशरण में आ, मैं तुझे सभी पुरातन पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिन्ता मत कर।' यदि तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करें, तो यहाँ जैन-दर्शन और गीता का दृष्टिकोण भिन्न है। जैन-दर्शन पुरातन कर्मों से मुक्ति के लिए उनका भोग अथवा तपस्या के द्वारा उनका क्षय-यह दो ही मार्ग देखता है, लेकिन गीता पुरातन कर्मों के क्षय करने के लिए न केवल ज्ञान एवं भक्ति पर बल देती है, वरन् वह जैन-विचारणा में प्रस्तुत संयम और निर्जरा के अन्य विविध साधनों-इन्द्रिय-संयम एवं मन, वाणी तथा शरीरका संयम, एकान्त-सेवन, अल्प-आहार, ध्यान, व्युत्सर्ग (वैराग्य) आदि की भी विवेचना करती है। कहा गया है कि 'हे अर्जुन! विशुद्ध बुद्धि से युक्त, एकान्त और शुद्ध देशका सेवन करने वाला तथा अल्प आहार करने वाला, जीते हुए मन, वाणी और शरीर वाला और दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त पुरुष निरन्तर ध्यान-योग के परायण हुआ, सदैव वैराग्ययुक्त, अन्त:करण को वश में करके तथा इन्द्रियों के शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग-द्वेषों को नष्ट करके तथा अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और संग्रह को त्यागकर, ममतारहित और शान्त अन्त:करण हुआ, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव होने के योग्य हो जाता है। 1 यदि तुलनात्मक-दृष्टि से देखें, तोगीताकार के इस कथन में संवर और निर्जराके अधिकांश तथ्य समाविष्ट हैं। यहाँ गीता का दृष्टिकोण जैन-विचारणा के अत्यन्त समीप आ जाता है। 10. निष्कर्ष
इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन बंधन से मुक्ति के लिये दो उपायों पर बल देते हैं- नवीन बंध से बचने के लिए संयम और पुरातन बंधन से छूटने के लिए तप, ज्ञान, भक्ति याध्यान। जहाँ तक संयम की बात है, तीनों आचार-दर्शन उसे लगभग समान रूप से स्वीकार करते हैं। तीनों के लिए संयम का अर्थ केवल इन्द्रियव्यापारों का निरोध न होकर उसके पीछे रही हुई आसक्ति का भय भी है। जहाँ तक पुरातन कर्मों से छूटने के साधन का प्रश्न है, जैन-दर्शन तप पर, बौद्ध-दर्शन ध्यान (चित्त-निरोध) पर तथा गीता ज्ञान एवं भक्ति पर अधिक बल देती है, लेकिन जैसा कि हमने देखा, जैनदर्शन का तप-ज्ञान समन्वित है, तो गीता का ज्ञान-मार्ग भी तप एवं संयम से युक्त है। बौद्धदर्शन का ध्यान भी जैन-दर्शन और गीता-दोनों को ही स्वीकृत है। जो भी अन्तर प्रतीत होता है, वह शब्दों का है, मूलात्मा का नहीं। जैन-दर्शन में निर्णय के साधन-रूप जिस तप का विधान है, उसमें ज्ञान और ध्यान-दोनों ही समाहित हैं। तीनों आचार-दर्शन साधक से
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