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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
इस प्रकार, बौद्ध-दर्शन में संवर का तत्त्व स्वीकृत रहा है। इन्द्रियनिग्रह और मन, वाणी एवं शरीर के संयम को दोनों परम्पराओं ने स्वीकार किया है। दोनों ही संवर (संयम) को नवीन कर्म-संतति से बचने का उपाय तथा निर्वाण-मार्ग का सहायक तत्त्व स्वीकार करते हैं। दशवैकालिकसूत्र के समान बुद्ध भी सच्चे साधक को सुसमाहित (सुसंवृत) रूप में देखना चाहते हैं। वे कहते हैं, जो वाणी का संयम करता है, जो उत्तम रूप से संयत है, जो अध्यात्म में स्थित है, जो समाधियुक्त है और सन्तुष्ट है।'13 4. गीता का दृष्टिकोण
गीता में संवरशब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, फिर भी मन, वाणी, शरीर और इन्द्रियों के संयम का विचार तो उसमें है ही। सूत्रकृतांग के समान कछुएका उदाहरण देते हुए गीताकार भी कहता है कि कछुआअपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही साधक जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।'
'हे अर्जुन ! यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी यह प्रमथन-स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती हैं। जैसे जल में वायु नाव को हर लेता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि का हरण कर लेती है। हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार के इन्द्रिय-विषयों से वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण स्थित होए। इस प्रकार गीता का जोर भी संयम पर है। 5. संयम और नैतिकता
वस्तुत:, जैन और गीता के आचार-दर्शन संयम के प्रत्यय को मुक्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। जैन-विचारणा में धर्म (नैतिकता) के तीन प्रमुख अंग माने गए हैं- 1. अहिंसा, 2. संयम और 3. तप। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है, 'अहिंसा, संयम और तपरूपधर्म सर्वोत्कृष्ट मंगल है।'16संयम का अर्थ है, मर्यादित या नियमपूर्वक जीवन और नैतिकता का भी यही अर्थ है। नैतिकता को मर्यादित या नियमपूर्वक जीवन से भिन्न नहीं देखा जा सकता।
किन्हीं विचारकों की यह मान्यता हो सकती है कि व्यक्ति को जीवन-यात्रा के संचालन में किन्हीं मर्यादाओं एवं आचार-नियमों में बाँधना उचित नहीं है। तर्क दिया जा सकता है कि मर्यादाओं के द्वारा व्यक्ति के जीवन की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है और मर्यादाएँ या नियम कभी भी परमसाध्य नहीं हो सकते। वे तो स्वयं एक प्रकार का बंधन हैं। लक्ष्य की प्राप्ति में मर्यादाएं व्यर्थ हैं।
लेकिन, यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है। प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर ज्ञात
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