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________________ बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा) 423 होता है कि प्रकृति (सम्पूर्ण जगत्) नियमों से आबद्ध है। पाश्चात्य-दार्शनिक स्पिनोजा का कथन है कि संसार में जो कुछ हो रहा है, नियमबद्ध हो रहा है। इससे भिन्न कुछ हो ही नहीं सकता, जो कुछ होता है, प्राकृतिक-नियम के अधीन होता है। प्रकृति स्वयं उन तथ्यों को व्यक्त कर रही है, जो इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि विकारमुक्त अवस्था की प्राप्ति एवं आत्म-विकास के लिए भी मर्यादाएँ आवश्यक हैं। चेतन और अचेतन-दोनों प्रकार की सृष्टि की अपनी-अपनी मर्यादाएँ हैं। सम्पूर्ण जगत् नियमों से शासित है। जिस समय जगत् में नियमों का अस्तित्व समाप्त होगा, उसी समय जगत् का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। नदी का अस्तित्व तटों की मर्यादा में है। यदि नदी अपनी सीमारेखा (तट) को स्वीकार नहीं करती है, तो क्या उसका अस्तित्व रह सकता है ? क्या वह अपने लक्ष्य जलनिधि (समुद्र) को प्राप्त कर सकती है, किंवा जन-कल्याण में उपयोगी हो सकती है? प्रकृति यदिअपने नियमों में आबद्ध न रहे, वह मर्यादा तोड़ दे, तो वर्तमान विश्व क्या अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है ? प्रकृति का अस्तित्व स्वयं उनके नियमों पर है। डॉ. राधाकृष्णन् कहते हैं, प्रकृति का मार्ग लोगों के मन में छाई भावना और संस्कार द्वारा नहीं, वरन शाश्वत नियमों द्वारा निर्धारित होता है, विश्व पूर्ण रूप से नियमबद्ध है।'18 पशु-जगत् के अपने नियम और अपनी मर्यादाएँ हैं, जिनके आधार पर वे अपनी जीवन-यात्रा सम्पन्न करते हैं। उनका आहार-विहार, सभी नियमबद्ध है। वे निश्चित समय परभोजन कीखोजको जाते एवं वापस लौट आते हैं। उनके जीवन-कार्यों में एक व्यवस्था होती है, लेकिन उपर्युक्त सभी तथ्यों के प्रति आपत्ति यह की जा सकती है कि ये सभी नियम स्वाभाविक या प्राकृतिक हैं, जबकि मानवीय नैतिक-नियम कृत्रिम या निर्मित होते हैं, अतएव उनकी महत्ता प्राकृतिक-नियमों की महत्ता के आधार पर सिद्ध नहीं की जा सकती। अब हम यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि मनुष्य के लिए निर्मित नैतिक-नियम क्यों आवश्यक हैं ? इस हेतु हमें सर्वप्रथम यह जान लेना आवश्यक होगा कि सामान्य प्राणीवर्ग और मनुष्य में क्या अन्तर है, जिसके आधार पर उसे नैतिक-मर्यादाएँ (निर्मित नियम) पालन करने को कहा जा सकता है। यह निर्विवाद सत्य है कि प्राणी-वर्ग में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसमें चिन्तन की सर्वाधिक क्षमता है। उसका यह ज्ञानगुण या विवेकक्षमता ही उसे पशुओं से पृथक्कर उच्च स्थान प्रदान करती है। नैतिक-नियम मानव-जाति के सहस्रों वर्षों के चिन्तन और मनन का परिणाम हैं। उनके मानने से इनकार करने का अर्थ होगा कि मनुष्य-जाति को उसकी ज्ञान-क्षमता से विलग कर पशु-जाति की श्रेणी में मिला देना। स्वाभाविक नियम तो पशुओं में भी होते हैं। उनका आचार-व्यवहार उन्हीं नियमों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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