________________
कर्म बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
411
4. नाम-रूप- नाम-रूप का प्रतीत्यसमुत्पाद में चौथा स्थान है। नाम-रूप का हेतु विज्ञान (चेतना) है। बौद्ध-दर्शन में समस्त जगत् रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान-इन पंचस्कन्धों से निर्मित है। प्रथम रूपस्कन्ध को रूप और शेष चारों स्कन्धों को नाम कहा जाता है। रूप भौतिक और नाम चेतन है। मिलिन्दप्रश्न में नागसेनं लिखते हैं कि जितनी स्थूल चीजे हैं, वे सभी रूप हैं और जितनी सूक्ष्म मानसिक-अवस्थाएँ हैं, वे नाम हैं पृथ्वी, अग्नि, पानी और वायु-ये चारों महाभूत और इनसे प्रत्युत्पन्न सभी वस्तुएँ एवंशरीराति रूप कही जाती हैं, जबकि वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान-ये चारों नाम कहे जाते हैं नाम जैन-विचारणा के आयुष्यकर्म, गतिनामकर्म और शरीर-नामकर्म कीसंयुक्त अवस्थ' से तुलनीय हैं।
5. षडायतन- षडायतन से तात्पर्य चक्षु, घ्राण, श्रवण, रसनाऔर स्पर्श-इन पाँच इन्द्रियों एवं छठे मन से है। षडायतन का कारण नाम-रूप है। तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करने पर व्यक्ति के सन्दर्भ में नाम-रूप और षडायतन जैन-दर्शन के नाम-कर्म के समान है, क्योंकि जैन-दर्शन में नामकर्म और बौद्ध-दर्शन में नाम-रूप तथा षडायतन वैयक्तिकता के निर्धारक हैं और इस अर्थ में दोनों ही समान हैं।
6. स्पर्श- षडायतन, अर्थात् इन्द्रियों एवं मन के होने से उनका अपने-अपने विषयों से सम्पर्क होता है। यह इन्द्रियों और विषय का संयोग ही स्पर्श है। यह षडायतनों पर निर्भर होने से छह प्रकार का है- आँख-स्पर्श (देखना), कान का स्पर्श (सुनना), नाक का स्पर्श (गन्ध-ग्रहण), जीभ का स्पर्श (स्वाद), शरीर का स्पर्श (त्वक्-संवेदना) और मन का स्पर्श (विचार-संकल्प)। ये सभी कुशल या अकुशल कर्म के विपाक माने गए हैं।
7. वेदना- वेदना स्पर्श-जनित है। इन्द्रिय और विषयों के संयोग कामन पर पड़ने वाला प्रथम प्रभाव वेदना है। इन्द्रियों के होने पर उनकाअपने-अपने विषयों से सम्पर्क होता है और वह सम्पर्क हमारे मन पर प्रभाव डालता है। यह प्रभाव चार प्रकार का होता है- 1. सुख-रूप, 2. दुःख-रूप, 3. सुख-दुःखरूप और 4. असुख-अदुःखरूप। पाँच इन्द्रियों एवं मन की अपेक्षा से वेदना के छह विभाग भी किए गए हैं। स्पर्श और वेदनाजैन-विचारणा के वेदनीय-कर्म के समान हैं। सुखरूप वेदना सातावेदनीय और दुःख-रूप वेदना असातावेदनीयसे तुलनीय है। असुख-अदुःखरूप-वेदनाकी तुलना जैन-दर्शन की वेदनीयकर्म की प्रदेशोदय नामक अवस्था से की जा सकती है।
8. तृष्णा- इन्द्रियों एवं मन के विषयों के सम्पर्क की चाह तृष्णा है। यह छह प्रकार की होती है- शब्द-तृष्णा, रूप-तृष्णा, गंध-तृष्णा, रस (आस्वाद)-तृष्णा, स्पर्श-तृष्णा
और मन के विषयों की तृष्णा। इनमें से प्रत्येक कामतृष्णा, भवतृष्णा और विभवतृष्णा के रूप में तीन प्रकार की होती है। विषयों के भोग की वासना को लेकर जो तृष्णा उदित होती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org