SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय आचार - दर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है - ऐसा होने पर ऐसा होता है और ऐसा न होने पर ऐसा नहीं होता है । वह यह मानता है कि प्रत्येक उत्पाद का कोई प्रत्यय, हेतु या कारण अवश्य होता है। यदि प्रत्येक उत्पाद सहेतुक है, तो फिर हमारे बन्धन या दुःख का भी कोई हेतु अवश्य होगा । प्रतीत्यसमुत्पाद हमारे बन्धन या दुःख की निम्न 12 अंगों में कार्य-कारणात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है । 410 - 1. अविद्या- प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या है। बौद्ध दर्शन में अविद्या का अर्थ है - दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध और दुःख - निरोधमार्गरूपी चार आर्यसत्य सम्बन्धी अज्ञान । अविद्या का हेतु आस्रव है, आस्रवों के समुदय से अविद्या का समुदय होता है और अविद्या के कारण ही जन्म-मरण परम्परा का संसरण होता है। इस प्रकार, बौद्धदर्शन में अविद्या संसार में आवागमन (बन्धन) का मूलाधार है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए, तो अविद्या जैन - परम्परा के दर्शन-मोह के समान है। दोनों के अनुसार यह एक आध्यात्मिक अन्धता या सम्यक् दृष्टिकोण का अभाव है। दोनों ही इस बात में सहमत हैं कि अविद्या या दर्शन - मोहदुःख, बन्धन एवं अनैतिक- आचरण का प्रमुख कारण है। दोनों ही परम्पराएँ अविद्या या दर्शन-मोह को अनादि मानते हुए भी अहेतुक या अकारण नहीं मानती हैं, जैसा कि सांख्यदर्शन में माना गया है। बौद्ध परम्परा में अविद्या और तृष्णा में तथा जैन - परम्परा में दर्शन - मोह और चारित्र मोह में पारस्परिक कार्य-कारण सम्बन्ध माना गया है। इस प्रकार, अविद्या या दर्शन - मोह अहेतुक नहीं है, उनका हेतु तृष्णा या चारित्रमोह है। - 2. संस्कार - प्रतीत्यसमुत्पाद की दूसरी कड़ी संस्कार है। कुशल- अकुशल कायिक, वाचिक और मानसिक चेतनाएँ, जो जन्म-मरण परम्परा का कारण बनती हैं, संस्कार कही जाती हैं। संस्कार एक प्रकार से मानसिक - वासना है, जो अविद्याजन्य है । संस्कार तीन प्रकार के हैं- 1. पुण्याभिसंस्कार, 2 अपुण्याभिसंस्कार, 3. अन्योन्याभिसंस्कार। ये संस्कार जैन - परम्परा के चारित्र मोह से तुलनीय हैं। पुण्याभिसंस्कार पुण्य - बन्धन से, अपुण्याभिसंस्कार पाप-बन्ध से और अन्योन्याभिसंस्कार पुण्यानुबन्धीपाप या पापानुबन्धी- पुण्य से तुलनीय हैं। - क्षमता का 3. विज्ञान - प्रतीत्यसमुत्पाद की तीसरी कड़ी विज्ञान (चेतना) है, जो संस्कारजन्य है। विज्ञान का तात्पर्य उन चित्त-धाराओं से है, जो पूर्वजन्म में किए हुए कुशल - अकुशल कर्मों के विपाकस्वरूप इस जन्म में प्रकट होती हैं और जिनके कारण मनुष्य को ऐन्द्रिक - संवेदन एवं अनुभूति होती है, अर्थात् विज्ञान इन्द्रियों की ज्ञान-सम्बन्धी चेतनआधार एवं निर्धारक है। इस प्रकार, विज्ञान जैन- परम्परा के ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्म से तुलनीय है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन- ये छह विज्ञान के प्रकार हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy