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कर्म बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
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जीवन-मुक्त बन जाता है।
__ अघाती-कर्म वे हैं, जो आत्मा के स्वभाव-दशा की उपलब्धि और विकास में बाधक नहीं होते।अघाती-कर्म भुने हुए बीज के समान हैं, जिनमें नवीन कर्मों की उत्पादनक्षमता नहीं होती। वे कर्म-परम्परा का प्रवाह बनाए रखने में असमर्थ होते हैं और समय की परिपक्वता के साथ ही अपना फल देकर सहज ही अलग हो जाते हैं।
सर्वघाती और देशघाती कर्म-प्रकृतियाँ- आत्मा के स्व-लक्षणों का आवरण करने वाले घाती-कर्मों की 45 कर्म-प्रकृतियाँ भी दो प्रकार की हैं- 1. सर्वघाती और 2. देशघाती। सर्वघाती कर्म-प्रकृति किसी आत्मगुण को पूर्णतया आवरित करती है और देशघाती कर्म-प्रकृति उसके एक अंश को आवरित करती है। ___आत्मा के स्वाभाविक सत्यानुभूति नाम-गुण को मिथ्यात्व (अशुद्ध दृष्टिकोण) सर्व-रूपेणआच्छादित कर देता है। अनन्तज्ञान (केवलज्ञान) और अनन्तदर्शन (केवलदर्शन) नामक आत्मा के गुणों का आवरण भी पूर्ण रूप से होता है। पाँचों प्रकार की निद्राएँ भी आत्मा की सहज अनुभूति की क्षमता को पूर्णतया आवरित करती हैं। इसी प्रकार, चारों कषायों के पहले तीनों प्रकार, जो कि संख्या में 12 होते हैं, भी पूर्णतया बाधक बनते हैं। अनन्तानुबन्धी-कषाय सम्यक्त्व का, प्रत्याख्यानी-कषाय देशव्रती-चारित्र (गृहस्थ-धर्म) काऔर प्रत्याख्यानी-कषाय सर्वव्रतीचारित्र (मुनिधर्म) का पूर्णतया बाधक बनता है, अत: ये 20 प्रकार की कर्म-प्रकृतियाँ सर्वघाती कही जाती हैं। शेष, ज्ञानावरणीय-कर्म की 4, दर्शनावरणीय-कर्म की 3, मोहनीय-कर्म की 13, अन्तराय-कर्म की 5 कुल 25 कर्मप्रकृतियाँ देशघाती कही जाती हैं। सर्वघात काअर्थमात्र इन गुणों के पूर्ण प्रकटन को रोकना है, न कि इन गुणों का अनस्तित्व, क्योंकि ज्ञानादि गुणों के पूर्ण अभावकी स्थिति में आत्मतत्त्व और जड़-तत्त्व में अंतर ही नहीं रहेगा। नन्दिसूत्र में तो कहा गया है कि जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाशको चाहे कितना हीआवरित क्यों न कर ले, फिर भी वह न तो उसकी प्रकाश-क्षमता को नष्ट कर सकता है और न उसके प्रकाश के प्रकटन को पूर्णतया रोक सकता है, उसी प्रकार चाहे कर्म ज्ञानादि आत्मगुणों को कितना ही आवृत्त क्यों न कर लें, फिर भी उनका एक अंश हमेशा ही अनावृत्त रहता है। 2 6. प्रतीत्यसमुत्पाद और अष्टकर्म, एक तुलनात्मक-विवेचन
जैन-दर्शन के अष्टकर्म के वर्गीकरण पर कोई तुलनात्मक-विवेचन सम्भव नहीं है, क्योंकि बौद्ध-दर्शन और गीता में इस रूप में कोई विवेचना उपलब्ध नहीं है, लेकिन जिस प्रकार जैन-दर्शन का कर्म-वर्गीकरण बन्धन एवं जन्म-मरण की परम्परा के कारकों की व्याख्या करता है, उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में प्रतीत्य-समुत्पादभी जन्म-मरण की परम्परा के कारकों की व्याख्या करता है, अत: उस पर संक्षेप में विचार कर लेना उपयुक्त होगा।
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