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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
है, वह काम-तृष्णा है। विषय (पदार्थ) और विषयी (भोक्ता) का संयोग सदैव बना रहे, उनका उच्छेद न हो, यह लालसा भवतृष्णा है। यह शाश्वतता या बने रहने की तृष्णा है। अरुचिकर या दुःखद संवेदनरूप विषयों के सम्पर्क को लेकर जो विनाश-सम्बन्धी इच्छा उदित होती है, वह विभवतृष्णा है। यह द्वेष स्थानीय एवं अनस्तित्व की तृष्णा है।
तृष्णा लोभ का ही रूप है। इस प्रकार, यह जैन-दर्शन के चारित्रमोह-कर्म के अन्तर्गत आजाती है। एक दूसरे प्रकार से तृष्णाअपूर्ण याअतृप्त इच्छा है और इस प्रकार यह अन्तराय-कर्म से भी तुलनीय है, यद्यपि दोनों में अधिक निकटता नहीं है।
9. उपादान- उपादान का अर्थ आसक्ति है, जो तष्णा के कारण होती है। उपादान चार प्रकार के हैं- 1. कामुपादान-कामभोग में गृद्ध बने रहना, 2. दिलृपादानमिथ्या धारणाओं से चिपके रहना, 3. सीलब्बूतूपादान-व्यर्थ के कर्मकाण्डों में लगे रहना
और 4.अत्तवादूपादान-आत्मवाद में आसक्ति रखना। उपादान कासम्बन्ध भीमोहनीयकर्म से ही माना जा सकता है। दिलृपादान, सीलब्बूतूपादान और अत्तवादूपादान का सम्बन्ध दर्शन-मोह से और कामूपादान का सम्बन्ध चारित्रमोह से है। वैसे ये उपादान वैयक्तिक-पुरुषार्थ को सन्मार्ग की दिशा में लगाने में बाधक हैं और इस रूप में वीर्यान्तराय के समान हैं।
10. भव- भव का अर्थ है-पुनर्जन्म कराने वाला कर्म। भव दो प्रकार का हैकम्मभव और उप्पत्तिभव। जो कर्म पुनर्जन्म कराने वाला है, वह कर्मभव (कम्मभव) है और जिस उपादान को लेकर व्यक्ति लोक में जन्म ग्रहण करता है, वह उत्पत्तिभव (उप्पत्तिभव) है। भव जैन-दर्शन के आयुष्यकर्म से तुलनीय है। कम्मभव भावी जीवन सम्बन्धी आयुष्यकर्म का बन्ध है, जो तृष्णा या मोह के कारण होता है। उत्पत्तिभव वर्तमान जीवन सम्बन्धी आयुष्य-धर्म है।
11. जाति- देवों का देवत्व, मनुष्यों का मनुष्यत्व, चतुष्पदों का चतुष्पदत्व जाति कहा जाता है। जाति भावी-जन्म की योनि का निश्चय है, जिससे पुन: जन्म ग्रहण करना होता है। जाति की तुलना जैन-दर्शन के जाति-नामकर्म से और कुछ रूप में गोत्र-कर्म से की जा सकती है।
____12. जरा-मरण-जन्मधारण कर वृद्धावस्था और मृत्युको प्राप्त होना जरा-मरण है। जरा-मरण की तुलना भी आयुष्य-कर्म के भोग से की जा सकती है। आयुष्य-कर्म का क्षय होना ही जरामरण है।
इस प्रकार, बौद्ध-दर्शन के प्रतीत्य-समुत्पाद और जैन-दर्शन के कर्मों के वर्गीकरण में कुछ निकटता देखी जा सकती है। यद्यपि दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि बौद्ध-दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की कड़ियों में पारस्परिक कार्य-कारण श्रृंखला की जो
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