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कर्म बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
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आचरण में प्रवृत्ति होती है, उन्हें मोहनीय (विमोहित करने वाले) कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं-दर्शनमोह और चारित्रमोह।
___ मोहनीय-कर्म के बन्ध के कारण- सामान्यतया मोहनीय-कर्म का बन्ध छ: कारणों से होता है- 1. क्रोध, 2. अहंकार, 3. कपट, 4. लोभ, 5.अशुभाचरण और 6. विवेकाभाव (विमूढ़ता)। प्रथम पाँचसे चारित्रमोह का और अन्तिमसे दर्शनमोह का बन्धन होता है। कर्मग्रन्थ में दर्शनमोह और चारित्रमोह के बन्धन के कारण अलग-अलग बताए गए हैं। दर्शनमोहके कारण हैं- उन्मार्ग-देशना, सन्मार्गकाअपलाप,धार्मिक-सम्पत्ति का अपहरण और तीर्थंकर, मनि. चैत्य (जिन-प्रतिमाएँ) और धर्म-संघ के प्रतिकूल आचरण। चारित्रमोह-कर्म के बन्धन के कारणों में कषाय, हास्य आदि तथा विषयों के अधीन होना प्रमुख हैं। तत्त्वार्थसूत्र में सर्वज्ञ, श्रुत,संघ,धर्म और देव के अवर्णवाद (निन्दा) को दर्शनमोह का तथा कषायजनित आत्म-परिणाम को चारित्रमोह का कारण माना गया है।50 समवायांगसूत्र में तीव्रतम मोहकर्म के बन्धन के तीस कारण बताए गए हैं। 11. जो किसी त्रसप्राणीको पानी में डुबाकरमारता है। 2.जो किसी त्रसप्राणी को तीव्र अशुभअध्यवसाय से मस्तक को गीला चमड़ा बांधकर मारता है। 3. जो किसी त्रस प्राणी को मुँह बाँधकर मारता है। 4. जो किसी त्रस प्राणी को अग्नि के धुएँ से मारता है। 5. जो किसी त्रस प्राणी के मस्तक का छेदन करके मारता है। 6. जो किसी त्रस प्राणी को छल से मारकर हँसता है। 7. जो मायाचार करके तथा असत्य बोलकर अपना अनाचार छिपाता है। 8. जो अपने दुराचार को छिपाकर दूसरे पर कलंक लगाता है। 9. जो कलह बढ़ाने के लिए जानता हुआ मिश्र भाषा बोलता है। 10. जो पति-पत्नी में मतभेद पैदा करता है तथा उन्हें मार्मिकवचनों से झेंपा देता है। 11. जो स्त्री में आसक्त व्यक्ति अपने-आपको कुंवारा कहता है। 12. जो अत्यन्त कामुक व्यक्ति अपने-आपको ब्रह्मचारी कहता है। 13. जो चापलूसी करके अपने स्वामी को ठगता है। 14. जो, जिनकी कृपा से समृद्ध बना है, वह ईर्ष्या से उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है। 15. जो अपने उपकारी की हत्या करता है। 16. जो प्रसिद्ध पुरुष की हत्या करता है। 17. जो प्रमुख पुरुष की हत्या करता है। 18. जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है। 19. जो महान् पुरुषों की निन्दा करता है। 20. जो न्यायमार्ग की निन्दा करता है। 21. जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु की निन्दा करता है। 22. जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु का अविनय करता है। 23. जो अबहुश्रुत होते हुए भी अपनेआपको बहुश्रुत कहता है। 24. जो तपस्वी न होते हुए भी अपने-आपको तपस्वी कहता है। 25. जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं करता है। 26. जो आचार्य आदि कुशास्त्र का प्ररूपण करते हैं। 27. जो आचार्य आदि अपनी प्रशंसा के लिए मंत्रादि का प्रयास करते हैं। 28. जो इहलोक और परलोक में भोगोपभोग पाने की अभिलाषा करता
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