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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
कोभी किसी प्रकार से दुःख नदेना। 6. किसी भी प्राणीको चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो, ऐसा कार्य न करना। 7. किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनाना। 8. किसी भी प्राणी को रुदन नहीं कराना। 9. किसी भी प्राणी को नहीं मारना और 10. किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं करना।40 कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय-कर्म के बन्धन का कारण गुरुभक्ति, क्षमा, करुणा, व्रतपालन, योग-साधना, कषायविजय, दान और दृढ़श्रद्धा माना गया है।41 तत्त्वार्थसूत्रकार का भी यही दृष्टिकोण है। 42
सातावेदनीयकर्म का विपाक- उपर्युक्त शुभाचरण के फलस्वरूप प्राणी निम्न प्रकार की सुखद संवेदना प्राप्त करता है- 1. मनोहर, कर्णप्रिय, सुखद स्वर श्रवण करने को मिलते हैं, 2. मनोज्ञ, सुन्दर रूप देखने को मिलता है, 3. सुगन्ध की संवेदना होती है, 4. सुस्वादु भोजन-पानादि उपलब्ध होता है, 5. मनोज्ञ, कोमल, स्पर्श व आसन, शयनादि की उपलब्धि होती है, 6. वांछित सुखों की प्राप्ति होती है, 7. शुभ वचन, प्रशंसादिसुनने का अवसर प्राप्त होता है, 8. शारीरिक-सुख मिलता है।43
असातावेदनीय कर्म के कारण-जिन अशुभ आचरणों के कारण प्राणीको दुःख संवेदना प्राप्त होती है, वे 12 प्रकार के हैं- 1 किसी भी प्राणी को दुःख देना, 2. चिन्तित बनाना, 3. शोकाकुल बनाना, 4. रुलाना, 5. मारना और 6. प्रताड़ित करना, इन छ: क्रियाओं की मंदता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 1. दु:ख, 2. शोक, 3. ताप, 4. आकन्दन, 5. वध और 6. परिदेवन-ये छ: असातावेदनीय-कर्म के बन्ध के कारण हैं, जो स्व' और 'पर' की अपेक्षा से 12 प्रकार के हो जाते हैं। स्व एवं पर की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थसूत्र का यह दृष्टिकोण अधिकसंगत है। कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय के बन्ध के कारणों के विपरीत गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना तथा दान एवं श्रद्धा का अभाव असातावेदनीय-कर्म के कारण माने गए हैं। इन क्रियाओं के विपाक के रूप में आठ प्रकार की दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं- 1. कर्ण- कटु, कर्कश स्वर सुनने को प्राप्त होते हैं 2. अमनोज्ञ एवं सौन्दर्यविहीन रूप देखने को प्राप्त होता है, 3. अमनोज्ञ गन्धों की उपलब्धि होती है, 4. स्वादविहीन भोजनादि मिलता है, 5. अमनोज्ञ, कठोर एवं दु:खद संवेदना उत्पन्न करने वाले स्पर्श की प्राप्ति होती है, 6. अमनोज्ञ मानसिक-अनुभूतियों का होना, 7. निन्दा-अपमानजनक वचन सुनने को मिलते हैं और 8. शरीर में विविध रोगों की उत्पत्ति से शरीर को दु:खद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं।47
4. मोहनीय कर्म
जैसे मदिराआदि नशीली वस्तु के सेवन से विवेक-शक्ति कुंठित हो जाती है, उसी प्रकार जिन कर्म-परमाणुओं में आत्मा की विवेक-शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक
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