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कर्म बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
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3. बन्धन के कारणों का बन्ध के चार प्रकारों से सम्बन्ध
बन्ध के चार प्रकारों का बन्ध के कारणों से क्या सम्बन्ध है, इस पर विचार करना भी आवश्यक है। जैन-दर्शन में स्वीकृत बन्ध के पाँच कारणों में से कषाय और योग-ये दो बन्धन के प्रकार की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, अत: कषाय और योग के . सन्दर्भ में बन्ध के इन चार प्रकारों पर विचार अपेक्षित है। जैन-विचारकों के अनुसार कषाय का सम्बन्ध स्थिति और अनुभाग-बन्ध से है। कषाय-वृत्ति की तीव्रता ही बन्धन की समयावधि (स्थिति) और तीव्रता (अनुभाग) का निश्चय करती है। पाप-बन्ध में कषाय जितने तीव्र होंगे, बन्धन की समयावधि और तीव्रता भी उतनी ही अधिक होगी, लेकिन पुण्य-बन्धन में कषाय और रागभाव का बन्धन की समयावधि से तो अनुलोम-सम्बन्ध होता है, लेकिन बन्धन की तीव्रता से प्रतिलोम-सम्बन्ध होता है, अर्थात् कषाय जितने अल्प होंगे, पुण्य-बन्ध उतना ही अधिक होगा। शुभ कर्मों का बन्ध कषायों की तीव्रता से कम और कषायों की मन्दता से अधिक होगा। जहाँ तक अनुभागबन्ध और स्थितिबन्ध के पारस्परिकसम्बन्ध का प्रश्न है, अशुभ-बन्ध में दोनों में अनुलोम-सम्बन्ध होता है, अर्थात् जितनी अधिक समयावधि का बन्ध होगा, उतना ही अधिक तीव्र होगा, लेकिन शुभ-बन्ध में दोनों में विलोम-सम्बन्ध होगा, अर्थात् जितनी अधिक समयावधि का बन्ध होगा, उतना ही कम तीव्र होगा।32 ____ बन्धन के दूसरे कारण योग (Activity) का सम्बन्ध प्रदेश-बन्ध और प्रकृतिबन्धसे है। जैनदर्शन के अनुसार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के अभाव में मात्र क्रिया (योग) से भी बन्ध होता है। क्रिया कर्मपरमाणुओं की मात्रा (प्रदेश) और गुण (प्रकृति) का निर्धारण करती है। योग या क्रियाएँ जितनी अधिक होंगी, उतनी ही अधिक मात्रा में कर्म-परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होकर उससे अपना सम्बन्ध स्थापित करेंगे, साथ ही क्रिया का प्रकार ही कर्म-पुद्गलों की प्रकृति का निर्धारण करता है। यद्यपि यह सही है कि क्रिया के स्वरूप का निर्धारण कषायों पर निर्भर होता है और अन्तिम रूप में तो कषाय ही कर्म-पुद्गलों की प्रकृति का निश्चय करते हैं, लेकिन निकटवर्ती कारण की दृष्टि से क्रिया (योग) ही कर्म-पुद्गलों के बन्ध की प्रकृति का निश्चय करती है। इस प्रकार, जैनदर्शन में कषाय या राग-भाव का सम्बन्ध बन्धन की समयावधि (स्थिति) तथा तीव्रता (अनुभाग) से होता है, जबकि क्रिया (योग) का सम्बन्ध बन्धन की मात्रा (प्रदेश)
और गुण (प्रकृति) से होता है। 4. अष्टकर्म और उनके कारण
जिस रूपमें कर्म-परमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते
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