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कर्म बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
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की मूलभूत त्रिपुटी कासापेक्ष-सम्बन्ध भी स्वीकार किया गया है। इस सम्बन्ध में आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं, 'लोभ और द्वेष का हेतु मोह है, किन्तु पर्याय से राग, द्वेष भी मोह के हेतु हैं। 21 राग, द्वेष और मोह में सापेक्ष-सम्बन्ध है। अज्ञान (मोह) के कारण हम राग-द्वेष करते हैं और राग-द्वेष ही हमें यथार्थ ज्ञान से वंचित रखते हैं। अविद्या (मोह) के कारण तृष्णा (राग) होती है और तृष्णा (राग) के कारण मोह होता है। गीताकी दृष्टि में बन्धन का कारण
जैन-परम्परा बन्धन में कारण-रूप में जो पाँच हेतु बताती है, उनको गीता की आचार-परम्परा में भी बन्धन के हेतु के रूप में खोजा जा सकता है। जैन-विचारणा के पाँच हेतु हैं- (1) मिथ्यात्व, (2) अविरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और (5) योग। गीता में मिथ्या-दृष्टिकोण को संसार-भ्रमण का कारण कहा गया है। इतना ही नहीं, मिथ्यात्व के पाँच प्रकार (1) एकान्त, (2) विपरीत, (3) संशय, (4) विनय (रूढ़िवादिता) और (5) अज्ञान में से विपरीत, संशयऔर अज्ञान-इन तीनका विवेचन गीता में मिलता है। विनयको अगर रूढ़-परम्परा के अर्थ में लें, तो गीता वैदिक रूढ़-परम्पराओं की आलोचना के रूप में विनय को स्वीकार कर लेती है। हाँ, गीता में एकान्त का मिथ्यात्व के रूप में विवेचन उपलब्ध नहीं होता। अविरति का विवेचन गीता अशुचि-व्रत के रूप में करती है।2 गीता में भी हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह (लोभ-आसक्ति) अविरति-ये पाँचों प्रकार बन्धन के कारण माने गए हैं। प्रमाद, जो तमोगुण से प्रत्युत्पन्न है, गीता के अनुसार, अधोगति का कारण माना गया है। यद्यपि गीता में कषाय' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, तथापि जैन-विचारणा में कषाय के जो चार भेद- क्रोध, मान, माया और लोभ बताए गए हैं, उनको गीता में भी आसुरी-सम्पदा कालक्षण एवं नरक आदिअधोगतिका कारण माना गया है। जैन-विचारणा में योग शब्द मानसिक, वाचिक और शारीरिक-कर्म के लिए प्रयुक्त हुआ है और इन तीनों को बन्धन का हेतु माना गया है। गीता स्वतन्त्र रूप से शारीरिक-कर्म को बन्धन का कारण नहीं मानती, वह मानसिक-तथ्य से सम्बन्धित होने परही शारीरिक-कर्मको बन्धक मानती है, अन्यथा नहीं। फिर भी, गीता के 18वें अध्याय में समस्त शुभाशुभ कर्मों का सम्पादन मन, वाणी और शरीर से माना गया है।24
गीता के अनुसार आसुरी-सम्पदा बन्धन का हेतु है। उसमें दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य (कठोर वाणी) एवं अज्ञान को आसुरी-सम्पदा कहा गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं, 'दम्भ, मान, मद से समन्वित दुष्पूर्ण आसक्ति (कामनाएँ) से युक्त तथा मोह (अज्ञान) से मिथ्यादृष्टित्व को ग्रहण कर प्राणी असदाचरण से युक्त हो संसार-परिभ्रमण करते हैं। यदि हम गीता के इस श्लोक का विश्लेषण करें, तो हमें यहाँ भी बन्धन के काम (आसक्ति) और मोह-ये दो प्रमुख कारण प्रतीत होते हैं, जिन्हें जैन और बौद्ध-परम्पराओं
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